ये हे संतान प्राप्ति के कुछ आसन से सरल उपाय

🛕 ज्योतिष ज्ञानामृत 🛕

आज विज्ञान बहुत तरक्की कर चुका है. इसकी वजह से आजकल संतान प्राप्ति के बहुत से तरीके उपलब्ध हो चुके है. इन सब से परे आप बच्चा गोद भी ले सकते है. लेकिन हर विवाहित जोड़ा चाहता है कि उसका अपना बच्चा होना चहिये. वैसे भी गोद लिए बच्चे को वो प्यार और ख़ुशी नहीं दे पाएंगे. जो वो अपने खुद के बच्चे को दे सकता है. हर कोई यही चाहता है कि उनका अपना बच्चा हो तो वो ही सबसे ठीक रहेगा.

आजकल संतान प्राप्ति के लिए लोग क्या-क्या जतन करते हे पर कुछ उपाय पूरी निष्ठा और मन से किये जाए तो अवश्य ही लाभ होता हे |

ये हे संतान प्राप्ति के कुछ आसन से सरल उपाय

1.मंत्रसिद्ध चैतन्य पीली कौड़ी को शुभ मुहूर्त में विधिपूर्वक बंध्या स्त्री की कमर में बाँधने से उस निःसंतान

स्त्री की गोद शीघ्र ही भर जाती है।

  1. बरगद के पत्ते पर कुमकुम द्वारा स्वास्तिक का निर्माण करके उस पर चावल एवं एक सुपारी रखकर किसी देवी मंदिर में चढ़ा दें। इससे भी संतान सुख की प्राप्ति यथाशीघ्र होती है।
  2. घर से बाहर निकलते समय यदि काली गाय आपके सामने आ जाए तो उसके सिर पर हाथ अवश्य फेरें। इससे संतान सुख का लाभ प्राप्त होता है।
  3. भिखरियो को गुड दान करने से भी संतान सुख प्राप्त होता है।
  4. विवाहित स्त्रियाँ नियमित रूप से पीपल की परिक्रमा करने और दीपक जलाने से उन्हें संतान अवश्य प्राप्त होती है।
  5. श्रवण नक्षत्र में प्राप्त किये गए काले एरंड की जड़ को विदिपूर्वक कमर में धारण करने से स्त्री को संतान सुख अवश्य मिलता है।
  6. रविवार के दिन यदि विधिपूर्वक सुगन्धरा की जड़ लाकर गाय के दूध के साथ पीसकर की स्त्री खावें तो उसे अवश्य ही संतान सुख मिलता है।
  7. संतान सुख प्राप्ति का एक उपाय यह भी है की गेंहू के आटे की गोलियां बनाकर उसमे चने की दाल एवं थोड़ी सी हल्दी मिलाकर गाय को गुरुवार के दिन खिलाये।
  8. चावलों की धोबन मे नींबू की जड़ को बारीक पीसकर स्त्री को पिलाने के उपरान्त यदि एक घंटे के भीतर स्त्री के साथ उसके पति द्वारा सहवास-क्रिया की जाए तो वो स्त्री निश्चित रूप से कन्या को ही जन्म देती है यह प्रयोग तब किया जाना चाहिए जब कन्या की चाहना बहुत अधिक हो

10.. यदि संतानहीन स्त्री ऋतुधर्म से पूर्व ही रेचक औषधियों (दस्तावर दवाओं) के द्वारा अपने उदार की शुद्धि कर लेने के पश्चात गूलर के बन्दा को श्रद्धापूर्वक लाकर बकरी के दूध के साथ पीए और मासिक धर्म की शुद्धि के उपरान्त सेवन करे तो पुत्र रतन की ही प्राप्ति होगी।

  1. पुष्य नक्षत्र में असगंध की जड़ को उखाड़कर गाय के दूध के साथ पीसकर पीने और दूध का ही आहार ऋतुकाल के उपरांत शुद्ध होने पर पीते रहने से उस स्त्री की पुत्र-प्राप्ति की अभिलाषा अवश्य ही पूरी हो जाती है .
  2. पुत्र की अभिलाषा रखने वाली स्त्री को चाहिए की वा ऋतु-स्नान से एक दिन पूर्व शिवलिंगी की बेल की जड़ मे तांबे का एक सिक्का ओर एक साबुत सुपारी रखकर निमंत्रण दे ओर दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व ही वहाँ जाकर हाथ जोड़कर प्रार्थना करे – हे विश्ववैद्या ! इस पुतरहीन की चिकित्सा आप स्वयम् ही करें! पुत्र विहीन इसकी कुटिया की संतान के मुखमंडल की आभा से आप ही दीप्त करें! ऐसा कहकर शिवलिंग की बेल की जड़ मे अपने आँचल सहित दोनों हाथों को फैलाकर घुटने के बल बैठ जाएँ ओर सिर को बेल की जड़ से स्पर्श कराकर प्रणाम करें! तत्पश्चात शिवलिंगी के पाँच पके हुए लाल फल तोड़कर अपने आँचल मे लपेट कर घर आ जाएँ . उसके बाद काली गाय के थोड़े से दूध मे शिवलिंगी के सभी दाने पीस-घोलकर इसी के दूध के साथ पी जावें तो पुत्र प्राप्ति होगी .
  3. रविवार को पुष्य नक्षत्र में आक (मदार ) की जड़ बंध्या स्त्री की कमर में बाँध दे इससे गर्भधारण करके वह संतान को जन्म अवश्य ही देगी।
  4. पति-पत्नी दोनो अथवा दोनो में से की भी आस्था और श्रद्धाभाव से भगवान श्रीकृष्ण का एक बालरूपी चित्र अपने कक्ष में लगाकर प्रतिदिन 108 बार निम्न मन्त्र का जप पुरे एक वर्ष तक करें।

उसकी मनोकामना अवश्य ही पूर्ण हो जायेगी।

मन्त्र यह है –

देवकी सूत गोविन्द वासुदेव जगत्पते। देहि में तनयं कृष्ण त्वामह शरणंगता।।

नोट – शिशु के जन्म के उपरान्त 21 बच्चों को भोजन कराकर यथाशक्ति दक्षिणा अवश्य देनी चाहिए।

  1. गुरुवार या रविवार को पुष्य नक्षत्र में श्वेत पुष्प वाली कटेरी की जड़ उखाड़ लाएं। मासिक-धर्म से निवृत होकर,ऋतू-स्नान कर लेने पर चौथे या पांचवें दिन कटेरी की जड़ गाय के दूध में (दूध बछड़े वाली गाय का हो) पीसकर पुत्र की अभिलषिणी उस स्त्री को पिला दें जिसके पहले से कोई संतान न हो अर्थात विवाहोपरांत संतान का मुह भी जिसने न देखा हो। जड़ी-सेवन के ठीक बाद स्त्री पति-समागम करे (इससे पहले नहीं) तो प्रथम संतान के रूप में पुत्र को ही जन्म देगी।

नोट – कटेरी एक काँटेदार झाड़ी जाती का पौधा होता है, जिस पर श्वेत डब्ल्यू पीत वार्णीय पुष्प लगते हैं|

इस प्रयोग के लिए श्वेत पुष्प की कटेरी की जड़ ही प्रयुक्त होती है | उसे ही शुभ दिन, मुहूर्त अथवा शुभ पर्व या पुष्य नक्षत्र मे आमंत्रित करके लानी चाहिए |

  1. यदि किसी रजस्वला स्त्री को स्वप्न में नागदेवता के दर्शन हो जाएँ तो स्वयं को कृतार्थ समझना चाहिए | यह इस बात का संकेत है की उसके द्वारा की गई क्रिया सफल हुई है| उसे अवश्य तथा शीघ्र ही सुन्दर, यशस्वी और दीर्घायु संतान प्राप्त होगी |
  2. यदि किसी के संतान नहीं हो रही हो तो उसके लिए बताया गया है की जब किसी व्यक्ति की मृत्यु हो गई हो और अर्थी पर भान्धकार उसे शमशान घाट ले जा रहा हो और वो अर्थी जब किसी चौराहे पर पहुंचे तो उस समय जिस स्त्री के बच्चा नहीं हो रहा है वो स्नान कर नए पीले व्वस्त्र पहनकर पहले से ही उस चौराहे पर कड़ी रहे और जब अर्थी चौराहे पर पहुंचे तो वह स्त्री तुरंत पश्चिम से पूरब की और उस अर्थी के नीचे से निकल जाए | यह ध्यान करते हुए कहे की तुझे मेरे पुत्र के रूप में जन्म लेना है|

:-यह उपाय बहुत ही कठिन हे जो इस उपाय को कर पाता हे उसे संतान सुख अवश्य ही प्राप्त होता हे |

  1. जब पुष्य नक्षत्र एवं रविवार का योग हो, अर्थात रवि पुष्य वाले दिन विधि पूर्वक अश्वगंधा की जड़ लाकर उसे छाया में सुखाकर, पीस और छानकर चूर्ण कर लें | नित्य सवा तोला चूर्ण भैंस के दूध के साथ सेवन करें| इसके साथ ही निम्न लिखित मन्त्र का एक माला जप भी अवश्य करें |

ॐ नमः शकी रुपाय मम गृह पुत्रं कुरु कुरु स्वः |

  1. पुरुष (पति) अश्विनी नक्षत्र से एक दिन पहले बेल के वृक्ष को आमंत्रित कर आये और दूसरे दिन उस वृक्ष का पत्ता लाकर एक रणवाली गाय के दूध में पीसकर स्त्री (पत्नी) को पिलायें और उसके साथ सहवास-क्रिया करे तो एक बार में ही स्त्री के गर्भ ठहर जाता है |
  2. श्रवण नक्षत्र में काले अरण्ड की जड़ को प्राप्त करके कमर में धारण करने वाली स्त्री को संतान-सुख की प्राप्ति अवश्य होती है |
  3. स्वस्थ व निरोगी होने पर भी संतान-सुख से वंचित स्त्री (जिसके पति में कोई कमी न हो)

श्वेत लक्ष्मणा-बूटी की इक्कीस की संख्या में गोली बनाकर रखे और एकेक गोली प्रतिदिन गाय के दूध के साथ सेवन करें तो उसे संतान का लाभ अवश्य होगा |

  1. यदि कोई संतानहीन स्त्री, दूसरी किसी स्त्री की प्रथम संतान (लड़का) की नाल को प्राप्त करके और सुखाकर बारीक पीस लें और पुराने गुड के साथ सेवन करे अथवा शुद्ध सोने के ताबीज में भरवाकर बायीं भुजा में धारण कर लें| इस क्रिया से सोभाग्यवती अवश्य होती हे |

नवरात्र में कन्या पूजन !!!!!

🛕 विविध ज्ञानामृत 🛕

नवरात्र में कन्या पूजन !!!!!

नवरात्र के दौरान कन्या पूजन का विशेष महत्व है। नौ कन्याओं को नौ देवियों के रूप में पूजन के बाद ही भक्त व्रत पूरा करते हैं। भक्त अपने सामर्थ्य के मुताबिक भोग लगाकर दक्षिणा देते हैं। इससे माता प्रसन्न होती हैं।

नवरात्र की सप्‍तमी से कन्‍या पूजन शुरू हो जाता है। सप्तमी, अष्टमी और नवमी के दिन इन कन्याओं को नौ देवी का रूप मानकर पूजा जाता है। कन्याओं के पैरों को धोया जाता है और उन्हें आदर-सत्कार के साथ भोजन कराया जाता है। ऐसा करने वाले भक्तों को माता सुख-समृद्धि का वरदान देती है।

नवरात्र के दौरान कन्या पूजन का विशेष महत्व है। नौ कन्याओं को नौ देवियों के रूप में पूजन के बाद ही भक्त व्रत पूरा करते हैं। भक्त अपने सामर्थ्य के मुताबिक भोग लगाकर दक्षिणा देते हैं। इससे माता प्रसन्न होती हैं।

इस दिन जरूर करें कन्या पूजन
सप्‍तमी से ही कन्‍या पूजन का महत्व है। लेकिन, जो भकग्त पूरे नौ दिन का व्रत करते हैं वे तिथियों के मुताबिक नवमी और दशमी को कन्‍या पूजन करने के बाद ही प्रसाद ग्रहण कर व्रत खत्म करते हैं। शास्‍त्रों में भी बताया गया है कि कन्‍या पूजन के लिए दुर्गाष्टमी के दिन को सबसे अहम और शुभ माना गया है।

ऐसे करें कन्या पूजन??????

  1. कन्या पूजन के लिए कन्‍याओं को एक दिन पहले सम्मान के साथ आमंत्रित करें।
  2. खासकर कन्या पूजन के दिवस ही कन्याओं को यहां-वहां से एकत्र करके लाना उचित नहीं होता है।
  3. गृह प्रवेश पर कन्याओं का पूरे परिवार के साथ पुष्प वर्षा से स्वागत करना चाहिए। नव दुर्गा के सभी नौ नामों के जयकारे लगाना चाहिए।
  4. कन्याओं को आरामदायक और स्वच्छ स्थान पर बैठाकर सभी के पैरों को स्वच्छ पानी या दूध से भरे थाल में पैर रखवाकर अपने हाथों से उनके पैर धोना चाहिए। पैर छूकर आशीष लेना चाहिए और कन्याओं के पैर धुलाने वाले जल या दूध को अपने मस्तिष्क पर लगाना चाहिए।
  5. कन्याओं को स्वच्छ और कोमल आसन पर बैठाकर पैर छूकर आशीर्वाद लेना चाहिए।
  6. उसके बाद कन्याओं को माथे पर अक्षत, फूल और कुमकुम लगाना चाहिए।
  7. इसके बाद मां भगवती का ध्यान करने के बाद इन देवी स्वरूप कन्याओं को इच्छा अनुसार भोजन कराएं।
  8. कन्याओं को अपने हाथों से थाल सजाकर भोजन कराएं और अपने सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा, उपहार दें और दोबारा से पैर छूकर आशीष लें।

दो से 10 साल तक होना चाहिए कन्या!!!!!!!!

1.अपने घर में बुलाई जाने वाली कन्याओं की आयु दो वर्ष से 10 वर्ष के भीतर होना चाहिए।

  1. कम से कम 9 कन्याओं को पूजन के लिए बुलाना चाहिए, जिसमें से एक बालक भी होना अनिवार्य है। जिसे हनुमानजी का रूप माना गया है। जिस प्रकार मां की पूजा भैरव के बिना पूरी नहीं पूर्ण नहीं होती , उसी प्रकार कन्या पूजन भी एक बालक के बगैर पूरा नहीं माना जाता। यदि 9 से ज्यादा कन्या भोज पर आ रही है तो कोई आपत्ति नहीं, उनका स्वागत करना चाहिए।

हर उम्र की कन्या का है अलग रूप!!!!!!

  1. नवरात्र के दौरान सभी दिन एक कन्या का पूजन होता है, जबकि अष्टमी और नवमी पर नौ कन्याओं का पूजन किया जाता है।
  2. दो वर्ष की कन्या का पूजन करने से घर में दुख और दरिद्रता दूर हो जाती है।

3.तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति का रूप मानी गई हैं। त्रिमूर्ति के पूजन से घर में धन-धान्‍य की भरमार रहती है, वहीं परिवार में सुख और समृद्धि जरूर रहती है।

4.चार साल की कन्या को कल्याणी माना गया है। इनकी पूजा से परिवार का कल्याण होता है, वहीं पांच वर्ष की कन्या रोहिणी होती हैं। रोहिणी का पूजन करने से व्यक्ति रोगमुक्त रहता है।

  1. छह साल की कन्या को कालिका रूप माना गया है। कालिका रूप से विजय, विद्या और राजयोग मिलता है। 7 साल की कन्या चंडिका होती है। चंडिका रूप को पूजने से घर में ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।
  2. 8 वर्ष की कन्याएं शाम्‍भवी कहलाती हैं। इनको पूजने से सारे विवाद में विजयी मिलती है। 9साल की की कन्याएं दुर्गा का रूप होती हैं। इनका पूजन करने से शत्रुओं का नाश हो जाता है और असाध्य कार्य भी पूरे हो जाते हैं।
  3. दस साल की कन्या सुभद्रा कहलाती हैं। सुभद्रा अपने भक्तों के सारे मनोरथ पूरा करती हैं।

कन्या का सम्मान सिर्फ 9 दिन नहीं जीवनभर करें!!!!!!!!

नवरात्र के दौरान भारत में कन्याओं को देवी का रूप मानकर पूजा जाता है। लेकिन, कुछ लोग नवरात्र के बाद यह सबकुछ भूल जाते हैं। बहूत-सी जगह कन्याएं शोषण का शिकार होती हैं और उनका अपमान हो रहा है। ऐसे में भारत में बहूत सारे गांवों में कन्या के जन्म पर लोग दुखी हो जाते हैं। जरा सोचिए…।

क्या आप ऐसा करके देवी मां के इन रूपों का अपमान नहीं कर रहे। कन्या और महिलाओं के प्रति हमें सोच बदलनी होगी। देवी तुल्य इन कन्‍याओं और महिलाओं का सम्मान करें। इनका आदर कर आप ईश्वर की पूजा के बराबर पुण्‍य प्राप्त करते हैं। शास्‍त्रों में भी बताया गया है कि जिस घर में औरत का सम्‍मान होता है, वहां खुद ईश्वर वास करते हैं।

कन्या पूजन की यह है प्राचीन परंपरा!!!!!!!

ऐसी मान्यता है कि एक बार माता वैष्णो देवी ने अपने परम भक्त पंडित श्रीधर की भक्ति से प्रसन्न होकर उसकी न सिर्फ लाज बचाई और पूरी सृष्टि को अपने अस्तित्व का प्रमाण भी दे दिया। आज जम्मू-कश्मीर के कटरा कस्बे से 2 किमी की दूरी पर स्थित हंसाली गांव में माता के भक्त श्रीधर रहते थे। वे नि:संतान थे एवं दुखी थे। एक दिन उन्होंने नवरात्र पूजन के लिए कुँवारी कन्याओं को अपने घर बुलवाया। माता वैष्णो कन्या के रूप में उन्हीं के बीच आकर बैठ गई। पूजन के बाद सभी कन्याएं लौट गईं, लेकिन माता नहीं गईं। बालरूप में आई देवी पं. श्रीधर से बोलीं- सबको भंडारे का निमंत्रण दे आओ। श्रीधर ने उस दिव्य कन्या की बात मान ली और आस–पास के गांवों में भंडारे का संदेशा भिजवा दिया। भंडारे में तमाम लोग आए। कई कन्याएं भी आई। इसी के बाद श्रीधर के घर संतान की उत्पत्ति हुई। तब से आज तक कन्या पूजन और कन्या भोजन करा कर लोग माता से आशीर्वाद मांगते हैं।

दुर्गाष्टमी पूजा एवं कन्या पूजन विधान विशेष
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चैत्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी व्रत 13 अक्टूबर बुधवार को किया जाएगा। इस दिन मां भवानी प्रकट हुई थी। इस दिन विधि-विधान से पूजा करनी चाहिए. दुर्गा अष्टमी के दिन माता दुर्गा के लिये व्रत किया जाता है।नवरात्रे में नौ रात्रि पूरी होने पर नौ व्रत पूरे होते है।इन दिनों में देवी की पूजा के अलावा दूर्गा पाठ, पुराण पाठ, रामायण, सुखसागर, गीता, दुर्गा सप्तशती की आदि पाठ श्रद्वा सहित करने चाहिए. इस दिन भगवान मत्यस्य जयन्ती भी मध्यान्ह अवधि में मनाई जाती है।

दूर्गा अष्टमी व्रत विधि
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इस व्रत को करने वाले उपवासक को इस दिन प्रात: सुबह उठना चाहिए।और नित्यक्रमों से निवृ्त होने के बाद सारे घर की सफाई कर, घर को शुद्ध करना चाहिए, इसके बाद साधारणत: इस दिन खीर, चूरमा, दाल, हलवा आदि बनाये जाते है. व्रत संकल्प लेने के बाद घर के किसी एकान्त कोने में किसी पवित्र स्थान पर देवी जी का फोटो तथा अपने ईष्ट देव का फोटो लगाया जाता है।

यदि संभव हो तो किसी योग्य ब्राह्मण द्वारा ही पूजन हवन का कार्य संपन्न कराया जाए परिस्तिथि वश ऐसा ना कर सके तो भाव से माँ का पूजन करना चाहिए।

सर्व प्रथम जिस स्थान पर यह पूजन किया जा रहा है, उसके दोनों और सिंदूर घोल कर, त्रिशुल व यम का चित्र बनाया जाता है. ठिक इसके नीचे चौकी बनावें. त्रिशुल व यम के चित्र के साथ ही एक और 52 व दूसरी और 64 लिखें। 52 से अभिप्राय 52 भैरव है, तथा 64 से अभिप्रात 64 योगिनियां है।साथ ही एक ओर सुर्य व दूसरी और चन्द्रमा बनायें।

किसी मिट्टी के बर्तन या जमीन को शुद्ध कर वेदी बनायें. उसमें जौ तथा गेंहूं बोया जाता है. कलश अपने सामर्थ्य के अनुसर सोना, चांदी, तांबा या मिट्टी का होना चाहिए। कलश पर नारियल रखा जाता है। नारियल रखने से पहले नीचे किनारे पर आम आदि के पत्ते भी लगाने चाहिए।

कलश में मोली लपेटकर सतिया बनाना चाहिए. पूर्व दिशा की ओर मुख करके पूजा करनी चाहिए।पूजा करने वाले का मुंह दक्षिण दिशा की ओर नहीं होना चाहिए। दीपक घी से जलाना चाहिए।नवरात्र व्रत का संकल्प हाथ में पानी, चावल, फूल तथा पैसे लेकर किया जाता है। इसके बाद श्री गणेश जी को चार बार चल के छींटे देकर अर्ध्य, आचमन और मोली चढाकर वस्त्र दिये जाते है. रोली से तिलक कर, चावल छोडे जाते है. पुष्प चढायें जाते है, धूप, दीप या अगरबत्ती जलाई जाती है।

भोग बनाने के लिये सबसे पहले चावल छोडे जाते है। इसके बाद नैवेद्ध भोग चढाया जाता है।जमीन पर थोडा पानी छोडकर आचमन करावें, पान-सुपारी एवं लौंग, इलायची भी चढायें।इसी प्रकर देवी जी का पूजन भी करें। और फूल छोडे, और सामर्थ्य के अनुसार नौ, सात, पांच,तीन या एक कन्या को भोजन करायें।इस व्रत में अपनी शक्ति के अनुसार उपवास किया जा सकता है। एक समय दोपहर के बाद अथवा रात को भोजन किया जा सकता है। पूरे नौ दिन तक व्रत न हों, तो सात, पांच या तीन करें, या फिर एक पहला और एक आखिरी भी किया जा सकता है।

व्रत की अवधि में धरती पर शुद्ध विछावन करके सोवें, शुद्धता से रहें, वैवाहिक जीवन में संयम का पालन करें, क्षमा, दया, उदारता और साहस बनाये रखें. साथ ही लोभ, मोह का त्याग करें. सायंकाल में दीपक जलाकर रखना चाहिए। नवरात्र व्रत कर कथा का पाठ अवश्य करना चाहिए।

देवी जी को वस्त्र, सामान इत्यादि चढाने चाहिए जिसमें चूडी, आभूषण, ओढना या घाघरा, धोती, काजल, बिन्दी इत्यादि और जो भी सौभाग्य द्रव्य हो, वे सभी माता को दान करने चाहिए।

देवी की सहस्त्रनाम द्वारा आराधना
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देवी की प्रसन्नता के लिए पंचांग साधन का प्रयोग करना चाहिए। पंचांग साधन में पटल, पद्धति, कवच, सहस्त्रनाम और स्रोत हैं। पटल का शरीर, पद्धति को शिर, कवच को नेत्र, सहस्त्रनाम को मुख तथा स्रोत को जिह्वा कहा जाता है।

इन सब की साधना से साधक देव तुल्य हो जाता है। सहस्त्रनाम में देवी के एक हजार नामों की सूची है। इसमें उनके गुण हैं व कार्य के अनुसार नाम दिए गए हैं। सहस्त्रनाम के पाठ करने का फल भी महत्वपूर्ण है। इन नामों से हवन करने का भी विधान है। इसके अंतर्गत नाम के पश्चात नमः लगाकर स्वाहा लगाया जाता है।

हवन की सामग्री के अनुसार उस फल की प्राप्ति होती है। सर्व कल्याण व कामना पूर्ति हेतु इन नामों से अर्चन करने का प्रयोग अत्यधिक प्रभावशाली है। जिसे सहस्त्रार्चन के नाम से जाना जाता है। सहस्त्रार्चन के लिए देवी की सहस्त्र नामावली जो कि बाजार में आसानी से मिल जाती है कि आवश्यकता पड़ती है।

इस नामावली के एक-एक नाम का उच्चारण करके देवी की प्रतिमा पर, उनके चित्र पर, उनके यंत्र पर या देवी का आह्वान किसी सुपारी पर करके प्रत्येक नाम के उच्चारण के पश्चात नमः बोलकर भी देवी की प्रिय वस्तु चढ़ाना चाहिए। जिस वस्तु से अर्चन करना हो वह शुद्ध, पवित्र, दोष रहित व एक हजार होना चाहिए।

अर्चन में बिल्वपत्र, हल्दी, केसर या कुंकुम से रंग चावल, इलायची, लौंग, काजू, पिस्ता, बादाम, गुलाब के फूल की पंखुड़ी, मोगरे का फूल, चारौली, किसमिस, सिक्का आदि का प्रयोग शुभ व देवी को प्रिय है। यदि अर्चन एक से अधिक व्यक्ति एक साथ करें तो नाम का उच्चारण एक व्यक्ति को तथा अन्य व्यक्तियों को नमः का उच्चारण अवश्य करना चाहिए।

अर्चन की सामग्री प्रत्येक नाम के पश्चात, प्रत्येक व्यक्ति को अर्पित करना चाहिए। अर्चन के पूर्व पुष्प, धूप, दीपक व नैवेद्य लगाना चाहिए। दीपक इस तरह होना चाहिए कि पूरी अर्चन प्रक्रिया तक प्रज्वलित रहे। अर्चनकर्ता को स्नानादि आदि से शुद्ध होकर धुले कपड़े पहनकर मौन रहकर अर्चन करना चाहिए।

इस साधना काल में लाल ऊनी आसन पर बैठना चाहिए तथा पूर्ण होने के पूर्व उसका त्याग किसी भी स्थिति में नहीं करना चाहिए। अर्चन के उपयोग में प्रयुक्त सामग्री अर्चन उपरांत किसी साधन, ब्राह्मण, मंदिर में देना चाहिए। कुंकुम से भी अर्चन किए जा सकते हैं। इसमें नमः के पश्चात बहुत थोड़ा कुंकुम देवी पर अनामिका-मध्यमा व अंगूठे का उपयोग करके चुटकी से चढ़ाना चाहिए।

बाद में उस कुंकुम से स्वयं को या मित्र भक्तों को तिलक के लिए प्रसाद के रूप में दे सकते हैं। सहस्त्रार्चन नवरात्र काल में एक बार कम से कम अवश्य करना चाहिए। इस अर्चन में आपकी आराध्य देवी का अर्चन अधिक लाभकारी है। अर्चन प्रयोग बहुत प्रभावशाली, सात्विक व सिद्धिदायक होने से इसे पूर्ण श्रद्धा व विश्वास से करना चाहिए।

कन्यापूजन विधि निर्देश
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नवरात्र पर्व के दौरान कन्या पूजन का बडा महत्व है। नौ कन्याओं को नौ देवियों के प्रतिविंब के रूप में पूजने के बाद ही भक्त का नवरात्र व्रत पूरा होता है। अपने सामर्थ्य के अनुसार उन्हें भोग लगाकर दक्षिणा देने मात्र से ही मां दुर्गा प्रसन्न हो जाती हैं और भक्तों को उनका मनचाहा वरदान देती हैं।

कन्या पूजन के लिए निर्दिष्ट दिन
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कुछ लोग नवमी के दिन भी कन्या पूजन करते हैं लेकिन अष्टमी के दिन कन्या पूजन करना श्रेष्ठ रहता है। कन्याओं की संख्या 9 हो तो अति उत्तम नहीं तो दो कन्याओं से भी काम चल सकता है।

इस वर्ष अष्टमी तिथि को लेकर लोगो के मन मे कई भ्रांतियां है इसके समाधान हेतु दोबारा अष्टमी तिथी का शात्रोक्त निर्णय प्रेषित कर रहे है

“चैत्र शुक्लाष्टमयां भावान्या उत्पत्ति:,
तत्र नावमीयुता अष्टमी ग्राह्या।”

यदि दूसरे दिन अष्टमी नवमीविधा ना मिले, यानी यह वहां त्रिमुहूर्ताल्प हो तो दुर्गाष्टमी पहले दिन होगी। इस वर्ष दुर्गाष्टमी 13 अक्टूबर बुधवार तथा दुर्गानवमी 14 अक्टूबर गुरुवार के दिन मनाई जाएगी अतः अष्टमी के दिन कन्या पूजन करने वाले 13 एवं नवमी के दिन करने वाले 14 अक्टूबर के दिन निसंकोच होकर अपने कर्म कर सकते है मन से किसी भी प्रकार के संशय भय की हटा दें माता केवल अपनी संतानों का कल्याण ही करती है। पूजा पाठ में शुद्धि के साथ भाव को प्रधान माना गया है।

कन्या पूजन विधि
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सबसे पहले कन्याओं के दूध से पैर पूजने चाहिए. पैरों पर अक्षत, फूल और कुंकुम लगाना चाहिए। इसके बाद भगवती का ध्यान करते हुए सबको भोग अर्पित करना चाहिए अर्थात सबको खाने के लिए प्रसाद देना चाहिए। अधिकतर लोग इस दिन प्रसाद के रूप में हलवा-पूरी देते हैं। जब सभी कन्याएं खाना खा लें तो उन्हें दक्षिणा अर्थात उपहार स्वरूप कुछ देना चाहिए फिर सभी के पैर को छूकर आशीर्वाद ले। इसके बाद इन्हें ससम्मान विदा करना चाहिए।

नवरात्र पर्व कितनी हो कन्याओं की उम्र
ऐसा माना जाता है कि दो से दस वर्ष तक की कन्या देवी के शक्ति स्वरूप की प्रतीक होती हैं. कन्याओं की आयु 2 वर्ष से ऊपर तथा 10 वर्ष से अधिक नहीं होनी चाहिए। दो वर्ष की कन्या कुमारी , तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति , चार वर्ष की कन्या कल्याणी , पांच वर्ष की कन्या रोहिणी, छह वर्ष की कन्या कालिका , सात वर्ष की चंडिका , आठ वर्ष की कन्या शांभवी , नौ वर्ष की कन्या दुर्गा तथा दस वर्ष की कन्या सुभद्रा मानी जाती है। इनको नमस्कार करने के मंत्र निम्नलिखित हैं।

  1. कौमाटर्यै नम: 2. त्रिमूर्त्यै नम: 3. कल्याण्यै नम: 4. रोहिर्ण्य नम: 5. कालिकायै नम: 6. चण्डिकार्य नम: 7. शम्भव्यै नम: 8. दुर्गायै नम: 9. सुभद्रायै नम:।
    डॉ0 विजय शंकर मिश्र:

नौ देवियों का रूप और महत्व
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  1. हिंदू धर्म में दो वर्ष की कन्या को कुमारी कहा जाता है. ऐसी मान्यता है कि इसके पूजन से दुख और दरिद्रता समाप्त हो जाती है।
  2. तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति मानी जाती है. त्रिमूर्ति के पूजन से धन-धान्य का आगमन और संपूर्ण परिवार का कल्याण होता है।
  3. चार वर्ष की कन्या कल्याणी के नाम से संबोधित की जाती है. कल्याणी की पूजा से सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।
  4. पांच वर्ष की कन्या रोहिणी कही जाती है, रोहिणी के पूजन से व्यक्ति रोग-मुक्त होता है।
  5. छ:वर्ष की कन्या कालिका की अर्चना से विद्या, विजय, राजयोग की प्राप्ति होती है।
  6. सात वर्ष की कन्या चण्डिका के पूजन से ऐश्वर्य मिलता है।
  7. आठ वर्ष की कन्या शाम्भवी की पूजा से वाद-विवाद में विजय होती है।
  8. नौ वर्ष की कन्या को दुर्गा कहा जाता है. किसी कठिन कार्य को सिद्धि करने तथा दुष्ट का दमन करने के उद्देश्य से दुर्गा की पूजा की जाती है।
  9. दस वर्ष की कन्या को सुभद्रा कहते हैं. इनकी पूजा से लोक-परलोक दोनों में सुख प्राप्त होता है।

नवरात्र पर्व पर कन्या पूजन के लिए कन्याओं की 7, 9 या 11 की संख्या मन्नत के मुताबिक पूरी करने में ही पसीना आ जाता है. सीधी सी बात है जब तक समाज कन्या को इस संसार में आने ही नहीं देगा तो फिर पूजन करने के लिये वे कहां से मिलेंगी।

जिस भारतवर्ष में कन्या को देवी के रूप में पूजा जाता है, वहां आज सर्वाधिक अपराध कन्याओं के प्रति ही हो रहे हैं. यूं तो जिस समाज में कन्याओं को संरक्षण, समुचित सम्मान और पुत्रों के बराबर स्थान नहीं हो उसे कन्या पूजन का कोई नैतिक अधिकार नहीं है. लेकिन यह हमारी पुरानी परंपरा है जिसे हम निभा रहे हैं और कुछ लोग शायद ढो रहे हैं. जब तक हम कन्याओं को यथार्थ में महाशक्ति, यानि देवी का प्रसाद नहीं मानेंगे, तब तक कन्या-पूजन नितान्त ढोंग ही रहेगा. सच तो यह है कि शास्त्रों में कन्या-पूजन का विधान समाज में उसकी महत्ता को स्थापित करने के लिये ही बनाया गया है।

अपने बच्चे को अच्छा इंसान बनाइये

🛕 विद्यार्थी विशेष ज्ञानामृत 🛕

अपने बच्चे को अच्छा इंसान बनाइये

🚩🌹अगर बचपन में आप बच्चे को बेड पर अकेला और रोता हुआ छोड़कर अपने दूसरे कामों में व्यस्त रहते हैं तो बड़े होने पर आप उसे उसके बुरे बर्ताव के लिए ब्लेम नहीं कर सकते क्योंकि उसके इस व्यवहार की वजह उसके अंदर आई वो अकेलेपन जैसी भावना होती है।

🚩🌹माता-पिता अपने बच्चे को अच्छा इंसान बनाना चाहते हैं। उसे अच्छी तरह व्यवहार करना, उठना, बैठना और बात करना सिखाते हैं। बच्चों को सिखाया जाता है कि बड़ों के साथ कैसे बर्ताव करें

🚩🌹लेकिन बच्चे यह सब सीखने के साथ ही और भी बहुत कुछ सीख रहे होते हैं।

🌹🚩बोलते नहीं पर सब समझते हैं

🚩🌹कई चाइल्ड स्टडीज में यह बात सामने आई है कि बच्चे बहुत फास्ट लर्नर होते हैं। जब वे बोलना भी नहीं सीखते हैं, तब भी वे चीजें ऑब्जर्व करते हैं और अपने बड़ों को कॉपी करने की कोशिश करते हैं। आप अपने बच्चे को जो सब सिखाने का प्रयास कर रहे हैं, वो उन सब चीजों को सीखने के साथ ही वह सब भी सीख रहा होता है, जो आप उसे नहीं सिखा रहे होते हैं।

🚩🌹पेरेंट्स का अच्छा व्यवहार तो बच्चे का भी

🌹🚩एक स्टडी के मुताबिक ज्यादातर केसेज में यह बात सामने आई कि जिन माता-पिता का व्यवहार अच्छा होता है, उनके बच्चों का व्यवहार भी अच्छा होता है। बच्चों को जो सिखाया जाता है, बच्चे उससे ज्यादा वह सब सीखते हैं जो उनके चारों तरफ उनकी आंखों के सामने हो रहा होता है।

🌹🚩आपको करना होगा ऐसा

🌹🚩अगर आप चाहते हैं कि आपका बच्चा समय पर सो जाए और समय पर उठ जाए। वह समय पर खाना खाए और अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे तो आपको यह सब पहले खुद करना होगा। आप अपना रूटीन सेट करेंगे तो आपको देखकर उतना छोटा बच्चा भी फॉलो करने की कोशिश करता है, जो अपनी बात साफ-साफ बोल नहीं पाता। अगर बचपन में आप बच्चे को बेड पर अकेला और रोता हुआ छोड़कर अपने दूसरे कामों में व्यस्त रहते हैं तो बड़े होने पर आप उसे उसके बुरे बर्ताव के लिए ब्लेम नहीं कर सकते। क्योंकि उसके इस व्यवहार की वजह उसके अंदर आई वो अकेलेपन जैसी भावना होती है। जो उसने बेड पर अकेले रोते हुए अनुभव की, वह बोल नहीं पाएगा लेकिन उसकी मेमोरीज में ये भाव जमा होते जाएंगे।

विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र (ऋषि मुनियों द्वारा किया गया अनुसंधान)

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विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र (ऋषि मुनियों द्वारा किया गया अनुसंधान)

■ काष्ठा = सैकन्ड का 34000 वाँ भाग
■ 1 त्रुटि = सैकन्ड का 300 वाँ भाग
■ 2 त्रुटि = 1 लव ,
■ 1 लव = 1 क्षण
■ 30 क्षण = 1 विपल ,
■ 60 विपल = 1 पल
■ 60 पल = 1 घड़ी (24 मिनट ) ,
■ 2.5 घड़ी = 1 होरा (घन्टा )
■3 होरा=1प्रहर व 8 प्रहर 1 दिवस (वार)
■ 24 होरा = 1 दिवस (दिन या वार) ,
■ 7 दिवस = 1 सप्ताह
■ 4 सप्ताह = 1 माह ,
■ 2 माह = 1 ऋतू
■ 6 ऋतू = 1 वर्ष ,
■ 100 वर्ष = 1 शताब्दी
■ 10 शताब्दी = 1 सहस्राब्दी ,
■ 432 सहस्राब्दी = 1 युग
■ 2 युग = 1 द्वापर युग ,
■ 3 युग = 1 त्रैता युग ,
■ 4 युग = सतयुग
■ सतयुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग + कलियुग = 1 महायुग
■ 72 महायुग = मनवन्तर ,
■ 1000 महायुग = 1 कल्प
■ 1 नित्य प्रलय = 1 महायुग (धरती पर जीवन अन्त और फिर आरम्भ )
■ 1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प ।(देवों का अन्त और जन्म )
■ महालय = 730 कल्प ।(ब्राह्मा का अन्त और जन्म )

सम्पूर्ण विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र यहीं है जो हमारे देश भारत में बना हुआ है । ये हमारा भारत जिस पर हमे गर्व होना चाहिये l
दो लिंग : नर और नारी ।
दो पक्ष : शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।
दो पूजा : वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)।
दो अयन : उत्तरायन और दक्षिणायन।

तीन देव : ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।
तीन देवियाँ : महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी।
तीन लोक : पृथ्वी, आकाश, पाताल।
तीन गुण : सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।
तीन स्थिति : ठोस, द्रव, वायु।
तीन स्तर : प्रारंभ, मध्य, अंत।
तीन पड़ाव : बचपन, जवानी, बुढ़ापा।
तीन रचनाएँ : देव, दानव, मानव।
तीन अवस्था : जागृत, मृत, बेहोशी।
तीन काल : भूत, भविष्य, वर्तमान।
तीन नाड़ी : इडा, पिंगला, सुषुम्ना।
तीन संध्या : प्रात:, मध्याह्न, सायं।
तीन शक्ति : इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।

चार धाम : बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।
चार मुनि : सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार।
चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
चार निति : साम, दाम, दंड, भेद।
चार वेद : सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
चार स्त्री : माता, पत्नी, बहन, पुत्री।
चार युग : सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग।
चार समय : सुबह, शाम, दिन, रात।
चार अप्सरा : उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।
चार गुरु : माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।
चार प्राणी : जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।
चार जीव : अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।
चार वाणी : ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्।
चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, ग्राहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।
चार भोज्य : खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।
चार पुरुषार्थ : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
चार वाद्य : तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।

पाँच तत्व : पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।
पाँच देवता : गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य।
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।
पाँच कर्म : रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
पाँच उंगलियां : अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।
पाँच पूजा उपचार : गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेद्य।
पाँच अमृत : दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।
पाँच प्रेत : भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।
पाँच स्वाद : मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा।
पाँच वायु : प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
पाँच इन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन।
पाँच वटवृक्ष : सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (Prayagraj), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।
पाँच पत्ते : आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक।
पाँच कन्या : अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।

छ: ॠतु : शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।
छ: ज्ञान के अंग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
छ: कर्म : देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।
छ: दोष : काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच), मोह, आलस्य।

सात छंद : गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।
सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि।
सात सुर : षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।
सात चक्र : सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मुलाधार।
सात वार : रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।
सात मिट्टी : गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।
सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।
सात ॠषि : वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, शौनक।
सात ॠषि : वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।
सात धातु (शारीरिक) : रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।
सात रंग : बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।
सात पाताल : अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
सात पुरी : मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।
सात धान्य : उड़द, गेहूँ, चना, चांवल, जौ, मूँग, बाजरा।

आठ मातृका : ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा।
आठ लक्ष्मी : आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।
आठ वसु : अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास।
आठ सिद्धि : अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।
आठ धातु : सोना, चांदी, ताम्बा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।

नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।
नवग्रह : सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।
नवरत्न : हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।
नवनिधि : पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि।

दस महाविद्या : काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।
दस दिशाएँ : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे।
दस दिक्पाल : इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।
दस अवतार (विष्णुजी) : मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दस सति : सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती।

उक्त जानकारी शास्त्रोक्त 📚 आधार पर…
ऐसी जानकारी बार-बार नहीं आती, और आगे भेजें, ताकि लोगों को सनातन धर्म की जानकारी हो सके आपका आभार धन्यवाद होगा

1-अष्टाध्यायी पाणिनी
2-रामायण वाल्मीकि
3-महाभारत वेदव्यास
4-अर्थशास्त्र चाणक्य
5-महाभाष्य पतंजलि
6-सत्सहसारिका सूत्र नागार्जुन
7-बुद्धचरित अश्वघोष
8-सौंदरानन्द अश्वघोष
9-महाविभाषाशास्त्र वसुमित्र
10- स्वप्नवासवदत्ता भास
11-कामसूत्र वात्स्यायन
12-कुमारसंभवम् कालिदास
13-अभिज्ञानशकुंतलम् कालिदास
14-विक्रमोउर्वशियां कालिदास
15-मेघदूत कालिदास
16-रघुवंशम् कालिदास
17-मालविकाग्निमित्रम् कालिदास
18-नाट्यशास्त्र भरतमुनि
19-देवीचंद्रगुप्तम विशाखदत्त
20-मृच्छकटिकम् शूद्रक
21-सूर्य सिद्धान्त आर्यभट्ट
22-वृहतसिंता बरामिहिर
23-पंचतंत्र। विष्णु शर्मा
24-कथासरित्सागर सोमदेव
25-अभिधम्मकोश वसुबन्धु
26-मुद्राराक्षस विशाखदत्त
27-रावणवध। भटिट
28-किरातार्जुनीयम् भारवि
29-दशकुमारचरितम् दंडी
30-हर्षचरित वाणभट्ट
31-कादंबरी वाणभट्ट
32-वासवदत्ता सुबंधु
33-नागानंद हर्षवधन
34-रत्नावली हर्षवर्धन
35-प्रियदर्शिका हर्षवर्धन
36-मालतीमाधव भवभूति
37-पृथ्वीराज विजय जयानक
38-कर्पूरमंजरी राजशेखर
39-काव्यमीमांसा राजशेखर
40-नवसहसांक चरित पदम् गुप्त
41-शब्दानुशासन राजभोज
42-वृहतकथामंजरी क्षेमेन्द्र
43-नैषधचरितम श्रीहर्ष
44-विक्रमांकदेवचरित बिल्हण
45-कुमारपालचरित हेमचन्द्र
46-गीतगोविन्द जयदेव
47-पृथ्वीराजरासो चंदरवरदाई
48-राजतरंगिणी कल्हण
49-रासमाला सोमेश्वर
50-शिशुपाल वध माघ
51-गौडवाहो वाकपति
52-रामचरित सन्धयाकरनंदी
53-द्वयाश्रय काव्य हेमचन्द्र

वेद-ज्ञान:-

प्र.1- वेद किसे कहते है ?
उत्तर- ईश्वरीय ज्ञान की पुस्तक को वेद कहते है।

प्र.2- वेद-ज्ञान किसने दिया ?
उत्तर- ईश्वर ने दिया।

प्र.3- ईश्वर ने वेद-ज्ञान कब दिया ?
उत्तर- ईश्वर ने सृष्टि के आरंभ में वेद-ज्ञान दिया।

प्र.4- ईश्वर ने वेद ज्ञान क्यों दिया ?
उत्तर- मनुष्य-मात्र के कल्याण के लिए।

प्र.5- वेद कितने है ?
उत्तर- चार ।
1-ऋग्वेद
2-यजुर्वेद
3-सामवेद
4-अथर्ववेद

प्र.6- वेदों के ब्राह्मण ।
वेद ब्राह्मण
1 – ऋग्वेद – ऐतरेय
2 – यजुर्वेद – शतपथ
3 – सामवेद – तांड्य
4 – अथर्ववेद – गोपथ

प्र.7- वेदों के उपवेद कितने है।
उत्तर – चार।
वेद उपवेद
1- ऋग्वेद – आयुर्वेद
2- यजुर्वेद – धनुर्वेद
3 -सामवेद – गंधर्ववेद
4- अथर्ववेद – अर्थवेद

प्र 8- वेदों के अंग हैं ।
उत्तर – छः ।
1 – शिक्षा
2 – कल्प
3 – निरूक्त
4 – व्याकरण
5 – छंद
6 – ज्योतिष

प्र.9- वेदों का ज्ञान ईश्वर ने किन किन ऋषियो को दिया ?
उत्तर- चार ऋषियों को।
वेद ऋषि
1- ऋग्वेद – अग्नि
2 – यजुर्वेद – वायु
3 – सामवेद – आदित्य
4 – अथर्ववेद – अंगिरा

प्र.10- वेदों का ज्ञान ईश्वर ने ऋषियों को कैसे दिया ?
उत्तर- समाधि की अवस्था में।

प्र.11- वेदों में कैसे ज्ञान है ?
उत्तर- सब सत्य विद्याओं का ज्ञान-विज्ञान।

प्र.12- वेदो के विषय कौन-कौन से हैं ?
उत्तर- चार ।
ऋषि विषय
1- ऋग्वेद – ज्ञान
2- यजुर्वेद – कर्म
3- सामवे – उपासना
4- अथर्ववेद – विज्ञान

प्र.13- वेदों में।

ऋग्वेद में।
1- मंडल – 10
2 – अष्टक – 08
3 – सूक्त – 1028
4 – अनुवाक – 85
5 – ऋचाएं – 10589

यजुर्वेद में।
1- अध्याय – 40
2- मंत्र – 1975

सामवेद में।
1- आरचिक – 06
2 – अध्याय – 06
3- ऋचाएं – 1875

अथर्ववेद में।
1- कांड – 20
2- सूक्त – 731
3 – मंत्र – 5977

प्र.14- वेद पढ़ने का अधिकार किसको है ? उत्तर- मनुष्य-मात्र को वेद पढ़ने का अधिकार है।

प्र.15- क्या वेदों में मूर्तिपूजा का विधान है ?
उत्तर- बिलकुल भी नहीं।

प्र.16- क्या वेदों में अवतारवाद का प्रमाण है ?
उत्तर- नहीं।

प्र.17- सबसे बड़ा वेद कौन-सा है ?
उत्तर- ऋग्वेद।

प्र.18- वेदों की उत्पत्ति कब हुई ?
उत्तर- वेदो की उत्पत्ति सृष्टि के आदि से परमात्मा द्वारा हुई । अर्थात 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 43 हजार वर्ष पूर्व ।

प्र.19- वेद-ज्ञान के सहायक दर्शन-शास्त्र ( उपअंग ) कितने हैं और उनके लेखकों का क्या नाम है ?
उत्तर-
1- न्याय दर्शन – गौतम मुनि।
2- वैशेषिक दर्शन – कणाद मुनि।
3- योगदर्शन – पतंजलि मुनि।
4- मीमांसा दर्शन – जैमिनी मुनि।
5- सांख्य दर्शन – कपिल मुनि।
6- वेदांत दर्शन – व्यास मुनि।

प्र.20- शास्त्रों के विषय क्या है ?
उत्तर- आत्मा, परमात्मा, प्रकृति, जगत की उत्पत्ति, मुक्ति अर्थात सब प्रकार का भौतिक व आध्यात्मिक ज्ञान-विज्ञान आदि।

प्र.21- प्रामाणिक उपनिषदे कितनी है ?
उत्तर- केवल ग्यारह।

प्र.22- उपनिषदों के नाम बतावे ?
उत्तर-
01-ईश ( ईशावास्य )
02-केन
03-कठ
04-प्रश्न
05-मुंडक
06-मांडू
07-ऐतरेय
08-तैत्तिरीय
09-छांदोग्य
10-वृहदारण्यक
11-श्वेताश्वतर ।

प्र.23- उपनिषदों के विषय कहाँ से लिए गए है ?
उत्तर- वेदों से।
प्र.24- चार वर्ण।
उत्तर-
1- ब्राह्मण
2- क्षत्रिय
3- वैश्य
4- शूद्र

प्र.25- चार युग।
1- सतयुग – 17,28000 वर्षों का नाम ( सतयुग ) रखा है।
2- त्रेतायुग- 12,96000 वर्षों का नाम ( त्रेतायुग ) रखा है।
3- द्वापरयुग- 8,64000 वर्षों का नाम है।
4- कलयुग- 4,32000 वर्षों का नाम है।
कलयुग के 5122 वर्षों का भोग हो चुका है अभी तक।
4,27024 वर्षों का भोग होना है।

पंच महायज्ञ
1- ब्रह्मयज्ञ
2- देवयज्ञ
3- पितृयज्ञ
4- बलिवैश्वदेवयज्ञ
5- अतिथियज्ञ

स्वर्ग – जहाँ सुख है।
नरक – जहाँ दुःख है।.

*# *भगवान_शिव के “35” रहस्य!!!!!!!!*

भगवान शिव अर्थात पार्वती के पति शंकर जिन्हें महादेव, भोलेनाथ, आदिनाथ आदि कहा जाता है।

🔱1. आदिनाथ शिव : – सर्वप्रथम शिव ने ही धरती पर जीवन के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें ‘आदिदेव’ भी कहा जाता है। ‘आदि’ का अर्थ प्रारंभ। आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम ‘आदिश’ भी है।

🔱2. शिव के अस्त्र-शस्त्र : – शिव का धनुष पिनाक, चक्र भवरेंदु और सुदर्शन, अस्त्र पाशुपतास्त्र और शस्त्र त्रिशूल है। उक्त सभी का उन्होंने ही निर्माण किया था।

🔱3. भगवान शिव का नाग : – शिव के गले में जो नाग लिपटा रहता है उसका नाम वासुकि है। वासुकि के बड़े भाई का नाम शेषनाग है।

🔱4. शिव की अर्द्धांगिनी : – शिव की पहली पत्नी सती ने ही अगले जन्म में पार्वती के रूप में जन्म लिया और वही उमा, उर्मि, काली कही गई हैं।

🔱5. शिव के पुत्र : – शिव के प्रमुख 6 पुत्र हैं- गणेश, कार्तिकेय, सुकेश, जलंधर, अयप्पा और भूमा। सभी के जन्म की कथा रोचक है।

🔱6. शिव के शिष्य : – शिव के 7 शिष्य हैं जिन्हें प्रारंभिक सप्तऋषि माना गया है। इन ऋषियों ने ही शिव के ज्ञान को संपूर्ण धरती पर प्रचारित किया जिसके चलते भिन्न-भिन्न धर्म और संस्कृतियों की उत्पत्ति हुई। शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत की थी। शिव के शिष्य हैं- बृहस्पति, विशालाक्ष, शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज इसके अलावा 8वें गौरशिरस मुनि भी थे।

🔱7. शिव के गण : – शिव के गणों में भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय प्रमुख हैं। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है।

🔱8. शिव पंचायत : – भगवान सूर्य, गणपति, देवी, रुद्र और विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं।

🔱9. शिव के द्वारपाल : – नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और महाकाल।

🔱10. शिव पार्षद : – जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं उसी तरह बाण, रावण, चंड, नंदी, भृंगी आदि शिव के पार्षद हैं।

🔱11. सभी धर्मों का केंद्र शिव : – शिव की वेशभूषा ऐसी है कि प्रत्येक धर्म के लोग उनमें अपने प्रतीक ढूंढ सकते हैं। मुशरिक, यजीदी, साबिईन, सुबी, इब्राहीमी धर्मों में शिव के होने की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। शिव के शिष्यों से एक ऐसी परंपरा की शुरुआत हुई, जो आगे चलकर शैव, सिद्ध, नाथ, दिगंबर और सूफी संप्रदाय में वि‍भक्त हो गई।

🔱12. बौद्ध साहित्य के मर्मज्ञ अंतरराष्ट्रीय : – ख्यातिप्राप्त विद्वान प्रोफेसर उपासक का मानना है कि शंकर ने ही बुद्ध के रूप में जन्म लिया था। उन्होंने पालि ग्रंथों में वर्णित 27 बुद्धों का उल्लेख करते हुए बताया कि इनमें बुद्ध के 3 नाम अतिप्राचीन हैं- तणंकर, शणंकर और मेघंकर।

🔱13. देवता और असुर दोनों के प्रिय शिव : – भगवान शिव को देवों के साथ असुर, दानव, राक्षस, पिशाच, गंधर्व, यक्ष आदि सभी पूजते हैं। वे रावण को भी वरदान देते हैं और राम को भी। उन्होंने भस्मासुर, शुक्राचार्य आदि कई असुरों को वरदान दिया था। शिव, सभी आदिवासी, वनवासी जाति, वर्ण, धर्म और समाज के सर्वोच्च देवता हैं।

🔱14. शिव चिह्न : – वनवासी से लेकर सभी साधारण व्‍यक्ति जिस चिह्न की पूजा कर सकें, उस पत्‍थर के ढेले, बटिया को शिव का चिह्न माना जाता है। इसके अलावा रुद्राक्ष और त्रिशूल को भी शिव का चिह्न माना गया है। कुछ लोग डमरू और अर्द्ध चन्द्र को भी शिव का चिह्न मानते हैं, हालांकि ज्यादातर लोग शिवलिंग अर्थात शिव की ज्योति का पूजन करते हैं।

🔱15. शिव की गुफा : – शिव ने भस्मासुर से बचने के लिए एक पहाड़ी में अपने त्रिशूल से एक गुफा बनाई और वे फिर उसी गुफा में छिप गए। वह गुफा जम्मू से 150 किलोमीटर दूर त्रिकूटा की पहाड़ियों पर है। दूसरी ओर भगवान शिव ने जहां पार्वती को अमृत ज्ञान दिया था वह गुफा ‘अमरनाथ गुफा’ के नाम से प्रसिद्ध है।

🔱16. शिव के पैरों के निशान : – श्रीपद- श्रीलंका में रतन द्वीप पहाड़ की चोटी पर स्थित श्रीपद नामक मंदिर में शिव के पैरों के निशान हैं। ये पदचिह्न 5 फुट 7 इंच लंबे और 2 फुट 6 इंच चौड़े हैं। इस स्थान को सिवानोलीपदम कहते हैं। कुछ लोग इसे आदम पीक कहते हैं।

रुद्र पद- तमिलनाडु के नागपट्टीनम जिले के थिरुवेंगडू क्षेत्र में श्रीस्वेदारण्येश्‍वर का मंदिर में शिव के पदचिह्न हैं जिसे ‘रुद्र पदम’ कहा जाता है। इसके अलावा थिरुवन्नामलाई में भी एक स्थान पर शिव के पदचिह्न हैं।

तेजपुर- असम के तेजपुर में ब्रह्मपुत्र नदी के पास स्थित रुद्रपद मंदिर में शिव के दाएं पैर का निशान है।

जागेश्वर- उत्तराखंड के अल्मोड़ा से 36 किलोमीटर दूर जागेश्वर मंदिर की पहाड़ी से लगभग साढ़े 4 किलोमीटर दूर जंगल में भीम के पास शिव के पदचिह्न हैं। पांडवों को दर्शन देने से बचने के लिए उन्होंने अपना एक पैर यहां और दूसरा कैलाश में रखा था।

रांची- झारखंड के रांची रेलवे स्टेशन से 7 किलोमीटर की दूरी पर ‘रांची हिल’ पर शिवजी के पैरों के निशान हैं। इस स्थान को ‘पहाड़ी बाबा मंदिर’ कहा जाता है।

🔱17. शिव के अवतार : – वीरभद्र, पिप्पलाद, नंदी, भैरव, महेश, अश्वत्थामा, शरभावतार, गृहपति, दुर्वासा, हनुमान, वृषभ, यतिनाथ, कृष्णदर्शन, अवधूत, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, किरात, सुनटनर्तक, ब्रह्मचारी, यक्ष, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, द्विज, नतेश्वर आदि हुए हैं। वेदों में रुद्रों का जिक्र है। रुद्र 11 बताए जाते हैं- कपाली, पिंगल, भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, आपिर्बुध्य, शंभू, चण्ड तथा भव।

🔱18. शिव का विरोधाभासिक परिवार : – शिवपुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर है, जबकि शिव के गले में वासुकि नाग है। स्वभाव से मयूर और नाग आपस में दुश्मन हैं। इधर गणपति का वाहन चूहा है, जबकि सांप मूषकभक्षी जीव है। पार्वती का वाहन शेर है, लेकिन शिवजी का वाहन तो नंदी बैल है। इस विरोधाभास या वैचारिक भिन्नता के बावजूद परिवार में एकता है।

🔱19. ति‍ब्बत स्थित कैलाश पर्वत पर उनका निवास है। जहां पर शिव विराजमान हैं उस पर्वत के ठीक नीचे पाताल लोक है जो भगवान विष्णु का स्थान है। शिव के आसन के ऊपर वायुमंडल के पार क्रमश: स्वर्ग लोक और फिर ब्रह्माजी का स्थान है।

🔱20.शिव भक्त : – ब्रह्मा, विष्णु और सभी देवी-देवताओं सहित भगवान राम और कृष्ण भी शिव भक्त है। हरिवंश पुराण के अनुसार, कैलास पर्वत पर कृष्ण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी। भगवान राम ने रामेश्वरम में शिवलिंग स्थापित कर उनकी पूजा-अर्चना की थी।

🔱21.शिव ध्यान : – शिव की भक्ति हेतु शिव का ध्यान-पूजन किया जाता है। शिवलिंग को बिल्वपत्र चढ़ाकर शिवलिंग के समीप मंत्र जाप या ध्यान करने से मोक्ष का मार्ग पुष्ट होता है।

🔱22.शिव मंत्र : – दो ही शिव के मंत्र हैं पहला- ॐ नम: शिवाय। दूसरा महामृत्युंजय मंत्र- ॐ ह्रौं जू सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जू ह्रौं ॐ ॥ है।

🔱23.शिव व्रत और त्योहार : – सोमवार, प्रदोष और श्रावण मास में शिव व्रत रखे जाते हैं। शिवरात्रि और महाशिवरात्रि शिव का प्रमुख पर्व त्योहार है।

🔱24.शिव प्रचारक : – भगवान शंकर की परंपरा को उनके शिष्यों बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज, अगस्त्य मुनि, गौरशिरस मुनि, नंदी, कार्तिकेय, भैरवनाथ आदि ने आगे बढ़ाया। इसके अलावा वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, बाण, रावण, जय और विजय ने भी शैवपंथ का प्रचार किया। इस परंपरा में सबसे बड़ा नाम आदिगुरु भगवान दत्तात्रेय का आता है। दत्तात्रेय के बाद आदि शंकराचार्य, मत्स्येन्द्रनाथ और गुरु गुरुगोरखनाथ का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।

🔱25.शिव महिमा : – शिव ने कालकूट नामक विष पिया था जो अमृत मंथन के दौरान निकला था। शिव ने भस्मासुर जैसे कई असुरों को वरदान दिया था। शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था। शिव ने गणेश और राजा दक्ष के सिर को जोड़ दिया था। ब्रह्मा द्वारा छल किए जाने पर शिव ने ब्रह्मा का पांचवां सिर काट दिया था।

🔱26.शैव परम्परा : – दसनामी, शाक्त, सिद्ध, दिगंबर, नाथ, लिंगायत, तमिल शैव, कालमुख शैव, कश्मीरी शैव, वीरशैव, नाग, लकुलीश, पाशुपत, कापालिक, कालदमन और महेश्वर सभी शैव परंपरा से हैं। चंद्रवंशी, सूर्यवंशी, अग्निवंशी और नागवंशी भी शिव की परंपरा से ही माने जाते हैं। भारत की असुर, रक्ष और आदिवासी जाति के आराध्य देव शिव ही हैं। शैव धर्म भारत के आदिवासियों का धर्म है।

🔱27.शिव के प्रमुख नाम : – शिव के वैसे तो अनेक नाम हैं जिनमें 108 नामों का उल्लेख पुराणों में मिलता है लेकिन यहां प्रचलित नाम जानें- महेश, नीलकंठ, महादेव, महाकाल, शंकर, पशुपतिनाथ, गंगाधर, नटराज, त्रिनेत्र, भोलेनाथ, आदिदेव, आदिनाथ, त्रियंबक, त्रिलोकेश, जटाशंकर, जगदीश, प्रलयंकर, विश्वनाथ, विश्वेश्वर, हर, शिवशंभु, भूतनाथ और रुद्र।

🔱28.अमरनाथ के अमृत वचन : – शिव ने अपनी अर्धांगिनी पार्वती को मोक्ष हेतु अमरनाथ की गुफा में जो ज्ञान दिया उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएं हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन है।

🔱29.शिव ग्रंथ : – वेद और उपनिषद सहित विज्ञान भैरव तंत्र, शिव पुराण और शिव संहिता में शिव की संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है।

🔱30.शिवलिंग : – वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है, उसे लिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है। वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदु-नाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। बिंदु अर्थात ऊर्जा और नाद अर्थात ध्वनि। यही दो संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है। इसी कारण प्रतीक स्वरूप शिवलिंग की पूजा-अर्चना है।

🔱31.बारह ज्योतिर्लिंग : – सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकालेश्वर, ॐकारेश्वर, वैद्यनाथ, भीमशंकर, रामेश्वर, नागेश्वर, विश्वनाथजी, त्र्यम्बकेश्वर, केदारनाथ, घृष्णेश्वर। ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति के संबंध में अनेकों मान्यताएं प्रचलित है। ज्योतिर्लिंग यानी ‘व्यापक ब्रह्मात्मलिंग’ जिसका अर्थ है ‘व्यापक प्रकाश’। जो शिवलिंग के बारह खंड हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है।

दूसरी मान्यता अनुसार शिव पुराण के अनुसार प्राचीनकाल में आकाश से ज्‍योति पिंड पृथ्‍वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। इस तरह के अनेकों उल्का पिंड आकाश से धरती पर गिरे थे। भारत में गिरे अनेकों पिंडों में से प्रमुख बारह पिंड को ही ज्‍योतिर्लिंग में शामिल किया गया।

🔱32.शिव का दर्शन : – शिव के जीवन और दर्शन को जो लोग यथार्थ दृष्टि से देखते हैं वे सही बुद्धि वाले और यथार्थ को पकड़ने वाले शिवभक्त हैं, क्योंकि शिव का दर्शन कहता है कि यथार्थ में जियो, वर्तमान में जियो, अपनी चित्तवृत्तियों से लड़ो मत, उन्हें अजनबी बनकर देखो और कल्पना का भी यथार्थ के लिए उपयोग करो। आइंस्टीन से पूर्व शिव ने ही कहा था कि कल्पना ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण है।

🔱33.शिव और शंकर : – शिव का नाम शंकर के साथ जोड़ा जाता है। लोग कहते हैं- शिव, शंकर, भोलेनाथ। इस तरह अनजाने ही कई लोग शिव और शंकर को एक ही सत्ता के दो नाम बताते हैं। असल में, दोनों की प्रतिमाएं अलग-अलग आकृति की हैं। शंकर को हमेशा तपस्वी रूप में दिखाया जाता है। कई जगह तो शंकर को शिवलिंग का ध्यान करते हुए दिखाया गया है। अत: शिव और शंकर दो अलग अलग सत्ताएं है। हालांकि शंकर को भी शिवरूप माना गया है। माना जाता है कि महेष (नंदी) और महाकाल भगवान शंकर के द्वारपाल हैं। रुद्र देवता शंकर की पंचायत के सदस्य हैं।

🔱34. देवों के देव महादेव : देवताओं की दैत्यों से प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। ऐसे में जब भी देवताओं पर घोर संकट आता था तो वे सभी देवाधिदेव महादेव के पास जाते थे। दैत्यों, राक्षसों सहित देवताओं ने भी शिव को कई बार चुनौती दी, लेकिन वे सभी परास्त होकर शिव के समक्ष झुक गए इसीलिए शिव हैं देवों के देव महादेव। वे दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान हैं। वे राम को भी वरदान देते हैं और रावण को भी। *जयश्री राधेकृष्णा*

रुपारामजी तरक किलवा का इतिहास

श्री आंजणा समाज का इतिहास

रुपारामजी तरक किलवा एक #युगपुरुषराजस्थान राज्य के जालौर जिले के सांचौर तहसील से पश्चिम दिशा लगभग तीन कोस की दूरी पर स्थित किलवा गांव में उस समय के आंजना समाज के एक किसान श्री सोमजी तरक के घर सन् 1350 (संवत् 1406) में एक पुत्र का जन्म हुआ और पिताश्री सोमजी ने अपने पुत्र का नाम रुपाराम रखा।रुपजी अपनी माता पिता चौथी संतान थे
रुपाराम बचपन से ही ज़िद्द के पक्के थे और मात्र सात वर्ष की उम्र में ही उनको काफी समझ आ चुकी थी
आठ वर्ष की उम्र में रूपाजी तरक के माता-पिता का स्वर्गवास हो गया औ उनकी तीक्ष्ण बुद्धि, प्रतिभा देखकर रूपाजी के पिताश्री सोमजी के मित्र (एक व्यापारी/बालदी) अपने साथ रूपारामजी को लेकर गए और रुपजी ने पूरे मारवाड़,गुजरात मालवा में व्यापारी के रूप में भ्रमण किया और समाजिक रिती रिवाज़ को बखूबी समझा लगभग 15 साल की उम्र में रूपारामजी वापस किलवा आ गए।

रूपारामजी के पिताजी सज्जन पुरुष थे उनका गांव में सभी लोग सम्मान करते थे। रुपारामजी किलवा रावले पहुंचे तो कुंवर ने सम्मान के साथ रूपजी का स्वागत किया और अपने गांव में स्थाई रूप से रहने का आग्रह किया और कृषि के लिए बहुत सारी जमीन रूपजी को दी,रुपाजी वहीं पर रहने लगे।

उस समय कुंवर के पिताजी का स्वर्गवास हो गया था और कुंवर अब ठाकुर बन गये थे ठाकुर के माताजी जीवित थे उन्होंने रुपजी की प्रतिभा देखकर उनको अपने कुंवर के राजकाज के सलाहकार के रूप में नियुक्त कर दिया। कलबी समाज की वेषभूषा पूरी तरह से सफेद होती है क्योंकि वो लोग साफ मन के होते हैं और सफेद साफ (उजले) बिना दाग का प्रतीक माना जाता है एक दिन ठाकु की माताजी ने रूपजी से कहा था,अपनी समाज को उजली करना अर्थात् समाज और हिन्दू समाज के भविष्य को उज्जवल करना। रूपाजी ने ठाकुर के माताजी को जबान (वचन) दिया था कि आपकी इच्छा पूरी करूंगा।
रूपारामजी ने सांचौर के राव राजा के साथ बहुत से युद्धों में भाग लिया था वो कुशल सेनानायक और जुबान के पक्के थे उनकी हर कोई इज्जत करता था
उस समय राजा को #राव की पदवी प्राप्त थी रुपजी चितलवाना (सत्यपुर) में प्रशासनिक ओहदे पर थे
रूपाजी तरक और चितलवाना(सांचौर) सत्यपुर के राव राजा वरजांगजी चौहान आपस में पगड़ी बदल कर भाई बन गये थे (कोल वचन) उस समय सत्यपुर नगर के राजकुमार सोनगरा(चहुआंण)चौहान राव श्री वरजांगजी के जैसलमेर में महारावल केहर सिंह भाटी के वहां संवत् 1441 में विवाह करवाने में रुपजी ने बहुत मदद की थी जो जग प्रसिद्ध है। इससे खुश होकर सांचौर के आठ पटेलों को वरजांगजी चौहान द्वारा देसाई की पदवी दी गई। यह पदवी राजकीय उच्च नियुक्तियां थी जो कलबीयो के लिए सम्मान था उस समय सांचौर एक स्वतंत्र रियासत थी।
मायड ऐडा पुत जण,
जैडा आंजणा रूपा तरक!
कन्या विवाह धर्म राखियां,
हिंदू धर्म ने कर सदा सतर्क.!!
फूटे गोला फिन्फारा , टूटे तुरीयं तंग !
संग चढियो चौहान रे ,उण रुपा ने रंग.!!
सोनाजी काग,बालोजी फक,सोमोजी सोलंकी, मोहन मालवी, रावलोंजी(रावण)कोंदली, धाडजी पौण,बोका जसाजी,बग आशाजी, आठ लोगों को पदवी दी गई थी।
जिसका वर्णन इस प्रकार है
सोन काग सरताज तरकों विक्रम वरदाई।
बाल फकों दातार सोमो सोलंकी सवाई।।

माळवीय हुवौ मोहण दान महंगी किजै।
कोंदलिये हुवौ रावण काम सदा उतम किजै।।

धर धाड पौण, बोका जसा बग आसायत, वखौणिये।
वेलो यूं कहे वरजागंजी ने पटेल इणविद पेहचौणिये।।

जिसका प्रमाण यह शिलालेख दे रहा हैं… इस स्तंभ पर रूपाजी तरक, राव वरजांगजी और कई लोगों के नाम अंकित है एवं इसकी जानकारी एक काव्य में मिल रही हैं जो आप सभी के समक्ष पेश कर रहा हूं
चढ़यो वरजांग परणवा सारू ,
घण थट जांन कियो घमसाण ।।
संवत चौदे सो वरस इकताळे ,
जादव घर जुड़या जैसाण ।।1।।
राण अमरांण उदयपुर राणो ,
भिड़या भूप तीनों कुळभांण ।।
चड़ हठ करण ज्यूँ छोळां दे ,
चित्त ऊजळ जितयो चहुआंण ।।2।।
आँजणा मदद करि हद ऊपर ,
साढ़ा तीन करोड़ खुरसाण ।।
मशरिक मोद हुओ मन मोटो ,
सोवन चिड़ी कियो चहुआंण ।।3।।
किलवे जाग जद रूपसी कीनो ,
आयो सोनगरो धणी अवसाणं ।।
मांगो आज मुख हुतां थे म्हांसूं ,
भाखे मशरिक राव कुळभांण ।।4।।
कुळ गुरू तणी मांगणी किन्ही ,
तांबा पत्र लिखियो कुळ तेण ।।
चहुआंण वंश ने आँजणा शामिल ,
दतक वर सुध नटे नह देंण ।।5।।
साख भड़ मोय आज सब शामिल ,
गौ ब्रह्म हत्या री ओ गाळ ।।
वेण लेखांण साख चंद्र सूरज ,
शुकवि बेहु कुळ झाली साळ ।।6।।
टंकन मीठा मीर डभाल।
इस गीत को पढ़ने या सुनने से हमें पता लगता है कि राव वरजांगजी साचौर , खिमरा सोढा अमरकोट और उदयपुर राणा साहब यानी तीन बारातें जैसलमेर आई थी जिसमें वरजांगजी के साथ रूपाजी तरक भूतेळा सहायक था(हर समय निष्ठावान, स्वामी के लिए किसी भी काम के लिए तत्पर)रुपाजी ने उस विवाह में युद्ध भी किया था।सोढा शासक और उदयपुर महाराणा लाखा कोआपस में उलझाकर रखा और बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए वरजांगजी के विवाह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।उस विवाह के बाद रुपाजी तरक का महत्व काफी बढ़ गया था

श्री_रूपारामजी तरक के निवेदन पर राव श्री वरजांगजी चितलवाना ने सात विशी यानी 140 कन्याओं का विवाह करवाया । उस समय( तुरी) जाति के लोगों ने सोने के एक टक्के को अदा(लेने) करने की हठ पकड़ रखी थी। जिसके कारण 140 हिंदू कन्याएं विवाह योग्य होने के बावजूद विवाह नहीं हो पा रहा था

उस समय जोधपुर मंडोर में राठौड़ वंश का शासन था। रुपजी तरक की कीर्ति देखकर जोधपुर राजा ने उन्हें मिलने के लिए आमंत्रण भेजा रुपजी जोधपुर में पहुंचे तब मंडोर मारवाड़ की राजधानी थी विरमजी के पुत्र चुंडाजी राठौड़ का मंडोर पर शासन था चुंंडाजी और मेवाड़ के महाराणा लाखा के बीच आपसी संघर्ष चल रहा था राव चुंडाजी को आर्थिक और सैन्य सहयोग की आवश्यकता थी राव चुंडा जी रूपजी की बुद्धिमत्ता से प्रभावित हुए, रुपजी ने किलवा में एक बड़ा सामूहिक विवाह प्रसंग आयोजित करवाने की चर्चा की और टक्का प्रथा जैसी कुरीतियों एवं अंधविश्वासों को ख़त्म करने के लिए सहयोग मांगा मंडोर(जोधपुर) राजा ने रूपारामजी को खुश होकर सहयोग देने का आश्वासन दिया और बदले में रुपारामजी ने राजा को आर्थिक एवं सैन्य सहयोग देने का वादा किया।
रूपाजी तरक के पिताश्री सोमजी की पुण्यतिथि के रूप में श्री रूपाराम तरक ने सभी हिंदू समाजों के साथ मिलकर किलवा में सामूहिक विवाह प्रसंग आयोजित करवाने का विचार किया क्योंकि उस समय हिंदू धर्म से संबंधित समाजों में घोर कुरीतियों और अंधविश्वास के कारण #समाजतत्कालीन समाज की मुख्यधारा से बहुत पिछड़ा हुआ था। और उसी समय आंजना समाज के साथ-साथ अन्य हिंदू समाजों (#अधिकतरसमाजों) में भी लड़की के विवाह के लिए ट‌‌‌क्का प्रथा प्रचलित थी।
अगर कोई हिंदू परिवार अपनी लड़की का विवाह करवाता तो (तुरा) लोग एक टक्का लेते, नहीं तो विवाह नहीं होने देते, इस कारण हिंदू धर्म के सभी समाजों में लड़कियों का विवाह सोने का टक्का नहीं देने पर रुक जाता था। तूरा को दान देने पर ही धार्मिक, मांगलिक कार्य विधिवत पूर्ण माना जाता था,ऐसी कुरितियां उन लोगों ने फैला रखी थी।
तूरा लोग कौन थे?
1.कई जगह इनको भाट जैसी जाति
2.ओड(बेलदार) जाति का उपनाम
3.मांगणियार लोग जो दान स्वीकार करते थे

  1. ब्रहामण या दिशांतरी
  2. हरिजन जैसी एक जाति या आदिवासी।
    6.भांड जाति की एक शाखा
    बहुत तथ्यों के अभाव में इनको ब्रहामण ही कहना सही होगा, यह कर्म काण्ड और धार्मिक कार्य से संबंधित थे और हिंदु धर्म के हर धार्मिक और मांगलिक कार्यक्रम ब्रहमाण ही करवाते थे बहुत सी प्रथाएं ब्रहमाणो के द्वारा बनाई गई है।
    श्री रूपाराम तरक ने इन कुरीतियों को मिटाने के लिए मारवाड़ एवं गुजरात के सभी हिंदू समाजों के प्रमुख लोगों के साथ विचार-विमर्शकारों के साथ बैठकर निर्णय लेने का फैसला किया। तभी के समय में संसाधनों के अभाव में बहुत समय बीत जाता था बैठकें हुई और छः महीने जगन (प्रसाद) चलाया था, तो सभी समाजों ने सर्वसम्मति से श्री रूपारामजी तरक को इन कुरीतियों को समाप्त करने के लिए नेतृत्वकर्ता बनाने की इच्छा जाहिर की थी तब श्री रूपारामजी तरक ने भी सभी समाजों का सम्मान रखते हुए नेतृत्व करने का निवेदन स्वीकार किया था। और पश्चिमी राजस्थान #मारवाड़एवंगुजरात के सभी हिंदू समाजों निमंत्रण भेजा कि सभी समाज के लोग आकर इस सामूहिक विवाह कार्यक्रम में अपनी बेटी का विवाह करवा सकता है। तब उस समय गुजरात एवं मारवाड़ क्षेत्र में जगह-जगह श्री रुपारामजी तरक की चर्चा होने लगी हर किसी व्यक्ति की जुबान पर यानी छत्तीस कौम ( अठारह वर्ण) की जुबां पर और( तुरा) समुदाय में भी श्री रुपाराम तरक को लेकर चर्चा होने लगी कि ऐसा व्यक्ति कौन है.? जो हमें बच्चे से लेकर बुड्ढे तक सभी को सोने की मोहर/टक्का देंगे?
    श्री रूपाराम तरक ने सन् (संवत् 1450) वार सोम पोष सूद सप्तमी में लगभग 1600 कन्याओं का सामूहिक विवाह प्रसंग आचार्यों से वैदिक मंत्रोच्चार और मांगलिक गीतों के साथ हर्षोल्लास के साथ सफलता पूर्वक आयोजित करवाया, जोधपुर राजा ने भी अपने प्रतिनिधि (दूत) उस विवाह समारोह में भेजें थे
    उस सामूहिक विवाह समारोह में रुपजी तरक ने करीब साठ अनाथ कन्याएं विभिन्न हिंदू समाज की थी उनके पिता की भूमिका निभाई और कन्यादान किया।
    श्री रूपाराम जी ने अपने पिताश्री सोमजी इच्छा पूरी की। सभी ब्राह्मणों (तुरी) को सोने का टक्का दिया गया, गरीबों में वस्त्र बांटे गए!राव चंडिसा,भाट और विवाह में पधारे सभी को यथायोग्य सम्मान पांचपसाव,उपहार,सीख सिरोपाव, दक्षिणा देकर विदा किया गया! चारों ओर खुशियां मनाईं गई और रूपजी तरक के चर्चे हर जगह होने लगें।
    रुपजी तरक के सामाजिक सुधार,..
    1.यह टक्का प्रथा शायद (तुर्को) अलाउद्दीन खिलजी ने हिंदूओं को आपस में तोड़ने के लिए हिंदुओं से ही शुरू करवाईं थी ताकि हिंदू आपस में उलझे रहे।
    2.रूपजी तरक के निवेदन करने पर मारवाड़ जोधपुर राजा ने तब से टक्का प्रथा बंद करवा दी
    3.पहले बैलगाड़ी या घोड़ागाड़ी पर सवार व्यक्ति राजा, ठाकुर के सामने से नहीं निकल सकता था उसको नीचे उतरना पड़ता था।रुपजी तरक के निवेदन करने पर बिंदराजा को शादी तक छूट दी गई, उसकी वेशभूषा एक राजसी की तरह पहनने की छूट दी गई।
    4.कलबीयो को हर गांव में गांव चौधरी के पद दिए गए
    5.कलबी समाज खेती में मेहनती और पारंगत होते थे जोधपुर रियासत का इलाका मरूस्थलीय है जहां बाजरा भी मुश्किल से होता था उदयपुर महाराणा के आग्रह पर सांचौर राजा वरजांगजी ने बारह कलबी पटेल जोधपुर में दिए गए जिन्होंने बारह गांव बाडा/वाडा जिस गांव के पीछे वाडा शब्द लगता है बसाये थे।जोधपुर राजा ने इन् (कलबीयो) को सोने मोहरें से भरा हुआ सरू (घडा) से संबोधित किया था क्योंकि कलबी लोग मेहनत से खेती करके बहुत अनाज उत्पन्न करते थे और कृषि ही मुख्य जरिया था रजवाड़ों के लिए ,जिसको वह कर के रूप में लेते थे किसानों से।
    6.इससे पहले आंजणा समाज गुजरात और सांचौर में तक ही ज्यादा सिमीत था मारवाड़ में आंजणा कलबीयों का आगमन स्थाई रूप से पहली बार हुआ।
    7.सामुहिक विवाह का चलन हुआ
    8.राजा या ठाकुर से संवाद का काम राव चंडिसा जो कि
    आंजणा समाज के कुलगुरू बन गए थे वो करते थे
    9.किसी ठाकुर के अत्याचार से तंग होकर कलबी अपने कुलगुरू के साथ गांव छोड़ देते थे और जिस राज्य रियासत में जातें थे इनको हरकोई रजवाड़ा अपने यहां रखने को आतुर होते थे
    10.हिंदू समाज सामुहिक विवाह का मारवाड़ में बडे पैमाने पर पहली बार आयोजन
    11.लूणी नदी के आसपास पानी की सुविधा होने से
    कलबी समाज बाहुल्ता में रहने लगे।
    श्री रूपाराम तरक का इतिहास पूरे आंजणा/#कलबी समाज का इतिहास है। और सच कहूं तो पूरे हिंदू समाज का इतिहास है क्योंकि उस समय 1600 कन्याओं में 14 वर्णों की कन्याएं शामिल थी। इसमें से एक वर्ण कलबी समाज था। और भी कई वर्णें जैसे- सुथार, जाट, राजपूत (चौहानों को छोड़कर), रसपूत, ब्राह्मण, माली, नाई आदि समाज भी शामिल थे।… क्योंकि पूरे हिंदू धर्म की संस्कृति को बदनाम करने के लिए तुरा समुदाय ने आतंक फैला रखा था।.और टक्का प्रथा जैसी कुरीतियां प्रचलित थी
    उस दिन के बाद से तुरियों का परित्याग किया गया।
    रावों चंडिसा (वंशावली संरक्षण) को कलबियों के बहिवाचन का काम सौंपा गया था।
    ऐसे ऐतिहासिक कार्यों की पहचान आंजणा/कलबी समाज के पुरखों की राव द्वारा नामों की पोथी (राव नामो वाचे ) पढ़ते समय सबसे पहले #रूपाजी_तरक नाम का वाचन करते हैं…. इससे मालूम पड़ता है कि राव चंडिसा समाज के लिए भी रूपाजी तरक का एक ऐतिहासिक महत्व रहा है क्योंकि सामूहिक विवाह प्रसंग के समय आंजणा/कलबी समाज के वंशजों की जानकारी रखने, नया नाम जोड़ने और वंशावली वाचनें का काम राव चंडिसा समाज को सौंप दिया।
    रूपाजी तरक के समय सबसे #पहले यह काम रावजी श्री गलारामजी चंडिसा राव को सौंपा गया था। इसीलिए श्री रुपारामजी तरक से लेकर आज तक आंजणा/ कलबी समाज की वंशावली रखने का काम राव समाज करता आ रहा है
    सोने रो टक्को देकर सारो यों सुख करयो,
    रूपाजी तरक समाज रों नाम रोशन करयो।
    हजारों कन्याओं रो भविष्य उज्जवल करयो,
    कुरिति मिटाएं ने पीढ़ी-पीढ़ी रो सुख करयो।

श्री राजारामजी महाराज ने शिलालेखों और इस तपोभूमि का भ्रमण किया था एवं समझने की कोशिश की थी, साथ ही श्री रूपारामजी तरक के इतिहास को लेकर प्रशंसा भी की थी और 7 दिन किलवा में रुके थे
जब तक स्तंभ पर लिखी हुई लिपि नहीं समझी जाती तब तक इसकी सच्चाई उजागर नहीं हो सकती।
रुपजी तरक के नाम से ट्रस्ट फाउंडेशन भी बना हुआ है जिसके अध्यक्ष सांसद देवजी पटेल है उनको इस बारे में पुरातत्व सांस्कृतिक विभाग से मदद की मांग करके इस स्तंभ को ऐतिहासिक बनाने के प्रयास करने होंगे!
समय और भ्रमण ऐतिहासिक साक्ष्यों के शोध के अभाव में त्रुर्टि संभव है,

क्यों किया जाता है अंतिम संस्कार?????

क्यों किया जाता है अंतिम संस्कार?????

आत्मा जब शरीर छोड़ती है तो मनुष्य को पहले ही पता चल जाता है । ऐसे में वो स्वयं भी हथियार डाल देता है अन्यथा उसने आत्मा को शरीर में बनाये रखने का भरसक प्रयत्न किया होता है और इस चक्कर में कष्ट को झेला होता है।

अब उसके सामने उसके सारे जीवन की यात्रा चल-चित्र की तरह चल रही होती है । उधर आत्मा शरीर से निकलने की तैयारी कर रही होती है इसलिये शरीर के पाँच प्राण एक ‘धनंजय प्राण’ को छोड़कर शरीर से बाहर निकलना आरम्भ कर देते हैं ।
ये प्राण, आत्मा से पहले बाहर निकलकर आत्मा के लिये सूक्ष्म-शरीर का निर्माण करते हैं । जोकि शरीर छोड़ने के बाद आत्मा का वाहन होता है। धनंजय प्राण पर सवार होकर आत्मा शरीर से निकलकर इसी सूक्ष्म-शरीर में प्रवेश कर जाती है।

बहरहाल अभी आत्मा शरीर में ही होती है और दूसरे प्राण धीरे-धीरे शरीर से बाहर निकल रहे होते है कि व्यक्ति को पता चल जाता है । उसे बे-चैनी होने लगती है, घबराहट होने लगती है। सारा शरीर फटने लगता है, खून की गति धीमी होने लगती है। सांस उखड़ने लगती है । बाहर के द्वार बंद होने लगते हैं।

अर्थात अब चेतना लुप्त होने लगती है और मूर्च्छा आने लगती है । चैतन्य ही आत्मा के होने का संकेत है और जब आत्मा ही शरीर छोड़ने को तैयार है – तो चेतना को तो जाना ही है और वो मूर्छित होंने लगता है । बुद्धी समाप्त हो जाती है और किसी अन्जाने लोक में प्रवेश की अनुभूति होने लगती है – ये चौथा आयाम होता है।

फिर मूर्च्छा आ जाती है और आत्मा एक झटके से किसी भी खुली हुई इंद्री से बाहर निकल जाती है । इसी समय चेहरा विकृत हो जाता है । यही आत्मा के शरीर छोड़ देने का मुख्य चिन्ह होता है । शरीर छोड़ने से पहले – केवल कुछ पलों के लिये आत्मा अपनी शक्ति से शरीर को शत-प्रतिशत सजीव करती है – ताकि उसके निकलने का मार्ग अवरुद्ध ना रहे – और फिर उसी समय आत्मा निकल जाती है और शरीर खाली मकान की तरह निर्जीव रह जाता है ।

इससे पहले घर के आसपास कुत्ते-बिल्ली के रोने की आवाजें आती हैं । इन पशुओं की आँखे अत्याधिक चमकीली होती है । जिससे ये रात के अँधेरे में तो क्या सूक्ष्म-शरीर धारी आत्माओं को भी देख लेते हैं । जब किसी व्यक्ति की आत्मा शरीर छोड़ने को तैयार होती है तो उसके अपने सगे-संबंधी जो मृतात्माओं के तौर पर होते है । उसे लेने आते है और व्यक्ति उन्हें यमदूत समझता है और कुत्ते-बिल्ली उन्हें साधारण जीवित मनुष्य ही समझते है और अन्जान होने की वजह से उन्हें देखकर रोते है और कभी-कभी भौंकते भी हैं ।

शरीर के पाँच प्रकार के प्राण बाहर निकलकर उसी तरह सूक्ष्म-शरीर का निर्माण करते हैं । जैसे गर्भ में स्थूल-शरीर का निर्माण क्रम से होता है ।
सूक्ष्म-शरीर का निर्माण होते ही आत्मा अपने मूल वाहक धनंजय प्राण के द्वारा बड़े वेग से निकलकर सूक्ष्म-शरीर में प्रवेश कर जाती है । आत्मा शरीर के जिस अंग से निकलती है उसे खोलती, तोड़ती हुई निकलती है । जो लोग भयंकर पापी होते है उनकी आत्मा मूत्र याँ मल-मार्ग से निकलती है । जो पापी भी है और पुण्यात्मा भी है उनकी आत्मा मुख से निकलती है । जो पापी कम और पुण्यात्मा अधिक है उनकी आत्मा नेत्रों से निकलती है और जो पूर्ण धर्मनिष्ठ हैं, पुण्यात्मा और योगी पुरुष है उनकी आत्मा ब्रह्मरंध्र से निकलती है।

अब शरीर से बाहर सूक्ष्म-शरीर का निर्माण हुआ रहता है । लेकिन ये सभी का नहीं हुआ रहता । जो लोग अपने जीवन में ही मोहमाया से मुक्त हो चुके योगी पुरुष है । उन्ही के लिये तुरंत सूक्ष्म-शरीर का निर्माण हो पाता है । अन्यथा जो लोग मोहमाया से ग्रस्त है परंतु बुद्धिमान है ज्ञान-विज्ञान से अथवा पांडित्य से युक्त है । ऐसे लोगों के लिये दस दिनों में सूक्ष्म शरीर का निर्माण हो पाता है ।

हिंदु धर्म-शास्त्र में – दस गात्र का श्राद्ध और अंतिम दिन मृतक का श्राद्ध करने का विधान इसीलिये है कि – दस दिनों में शरीर के दस अंगों का निर्माण इस विधान से पूर्ण हो जाये और आत्मा को सूक्ष्म-शरीर मिल जाये । ऐसे में, जब तक दस गात्र का श्राद्ध पूर्ण नहीं होता और सूक्ष्म-शरीर तैयार नहीं हो जाता आत्मा, प्रेत-शरीर में निवास करती है । अगर किसी कारण वश ऐसा नहीं हो पाता है तो आत्मा प्रेत-योनि में भटकती रहती है ।

एक और बात, आत्मा के शरीर छोड़ते समय व्यक्ति को पानी की बहुत प्यास लगती है । शरीर से प्राण निकलते समय कण्ठ सूखने लगता है । ह्रदय सूखता जाता है और इससे नाभि जलने लगती है। लेकिन कण्ठ अवरूद्ध होने से पानी पिया नहीं जाता और ऐसी ही स्तिथि में आत्मा शरीर छोड़ देती है । प्यास अधूरी रह जाती है । इसलिये अंतिम समय में मुख में ‘गंगा-जल’ डालने का विधान है ।

इसके बाद आत्मा का अगला पड़ाव होता है शमशान का ‘पीपल’ । यहाँ आत्मा के लिये ‘यमघंट’ बंधा होता है । जिसमे पानी होता है । यहाँ प्यासी आत्मा यमघंट से पानी पीती है जो उसके लिये अमृत तुल्य होता है । इस पानी से आत्मा तृप्ति का अनुभव करती है ।

ये सब हिन्दू धर्म शास्त्रों में विधान है । कि – मृतक के लिये ये सब करना होता है ताकि उसकी आत्मा को शान्ति मिले । अगर किसी कारण वश मृतक का दस गात्र का श्राद्ध ना हो सके और उसके लिये पीपल पर यमघंट भी ना बाँधा जा सके तो उसकी आत्मा प्रेत-योनि में चली जायेगी और फिर कब वहां से उसकी मुक्ति होगी । कहना कठिन होगा l

*हां,  कुछ उपाय अवश्य है पहला ये कि किसी के देहावसान होने के समय से लेकर तेरह दिन तक  निरन्तर भगवान के नामों का उच्च स्वर में जप अथवा कीर्तन किया जाय और जो संस्कार बताए गए हैं उनका पालन करने से मृतक भूत प्रेत की योनि, नरक आदि में जाने से बच जाएगा , लेकिन ये करेगा कोन ?*

*ये संस्कारित परिजन, सन्तान, नातेदार ही कर सकते हैं l अन्यथा आजकल अनेक लोग केवल औपचारिकता निभाकर केवल दिखावा ही अधिक करते हैं l

*दूसरा उपाय कि मरने वाला व्यक्ति स्वयं भजनानंदी हो, भगवान का भक्त हो और अंतिम समय तक यथासंभव हरी स्मरण में रत रहा हो ।

*तीसरा भगवान के धामों में देह त्यागी हो, अथवा दाह संस्कार काशी, वृंदावन या चारों धामों में से किसी में किया हो l*

*स्वयं विचार करना चाहिए कि हम दूसरों के भरोसे रहें या अपना हित स्वयं साधें l*

जीवन बहुत अनमोल है, इसको व्यर्थ मत गवाओ। एक एक पल को सार्थक करो हरिनाम का नित्य आश्रय लो । मन के दायरे से बाहर निकल कर सचेत होकर जीवन को जिओ, ना कि मन के अधीन होकर। ये मानुष जन्म बार बार नहीं मिलता।

जीवन का एक एक पल जो जीवन का गुजर रहा है ,वह फिर वापिस नही मिलेगा। इसमें जितना अधिक हो भगवान का स्मरण जप करते रहें,   हर पल जो भी कर्म करो बहुत सोच कर करो। क्यूंकि कर्म परछाईं की तरह मनुष्य के साथ रहते है। इसलिए सदा शुभ कर्मों की शीतल छाया में रहो। वैसे भी कर्मों की धवनि शब्दों की धवनि से अधिक ऊँची होती है,अतः सदा कर्म सोच विचार कर करो।

जिस प्रकार धनुष में से तीर के चल जाने के बाद वापिस नहीं आता,इसीप्रकार जो कर्म आपसे हो गया वो उस पल का कर्म वापिस नही होता चाहे अच्छा हो या बुरा।इसलिए इससे पहले कि आत्मा इस शरीर को छोड़ जाये, शरीर मेँ रहते हुए आत्मा को यानि स्वयं को जान लो और जितना अधिक हो सके मन से, वचन से, कर्म से भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण का ध्यान, चिंतन, जप कीर्तन करते रहो, निरन्तर स्मरण से हम यम फास से तो बचेंगे ही बचेंगे साथ ही हमें भगवत धाम भी प्राप्त हो सकेगा जोकि जीवन का वास्तविक लक्ष्य है।

भारत में # आँखों की सर्जरी का इतिहास

भारत में #आँखोंकीसर्जरी का इतिहास

भारत में 200 वर्ष पहले आँखों की सर्जरी होती थी…शीर्षक देखकर आप निश्चित ही चौंके होंगे ना!!! बिलकुल, अक्सर यही होता है जब हम भारत के किसी प्राचीन ज्ञान अथवा इतिहास के किसी विद्वान के बारे में बताते हैं तो सहसा विश्वास ही नहीं होता. क्योंकि भारतीय संस्कृति और इतिहास की तरफ देखने का हमारा दृष्टिकोण ऐसा बना दिया गया है

मानो हम कुछ हैं ही नहीं, जो भी हमें मिला है वह सिर्फ और सिर्फ पश्चिम और अंग्रेज विद्वानों की देन है. जबकि वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है. भारत के ही कई ग्रंथों एवं गूढ़ भाषा में मनीषियों द्वारा लिखे गए दस्तावेजों से पश्चिम ने बहुत ज्ञान प्राप्त किया है… परन्तु “गुलाम मानसिकता” के कारण हमने अपने ही ज्ञान और विद्वानों को भुला दिया है.

भारत के दक्षिण में स्थित है तंजावूर. छत्रपति शिवाजी महाराज ने यहाँ सन 1675 में मराठा साम्राज्य की स्थापना की थी तथा उनके भाई वेंकोजी को इसकी कमान सौंपी थी. तंजावूर में मराठा शासन लगभग अठारहवीं शताब्दी के अंत तक रहा. इसी दौरान एक विद्वान राजा हुए जिनका नाम था “राजा सरफोजी”. इन्होंने भी इस कालखंड के एक टुकड़े 1798 से 1832 तक यहाँ शासन किया. राजा सरफोजी को “नयन रोग” विशेषज्ञ माना जाता था. चेन्नई के प्रसिद्ध नेत्र चिकित्सालय “शंकरा नेत्रालय” के नयन विशेषज्ञ चिकित्सकों एवं प्रयोगशाला सहायकों की एक टीम ने डॉक्टर आर नागस्वामी (जो तमिलनाडु सरकार के आर्कियोलॉजी विभाग के अध्यक्ष तथा कांचीपुरम विवि के सेवानिवृत्त कुलपति थे) के साथ मिलकर राजा सरफोजी के वंशज श्री बाबा भोंसले से मिले. भोंसले साहब के पास राजा सरफोजी द्वारा उस जमाने में चिकित्सा किए गए रोगियों के पर्चे मिले जो हाथ से मोड़ी और प्राकृत भाषा में लिखे हुए थे. इन हस्तलिखित पर्चों को इन्डियन जर्नल ऑफ औप्थैल्मिक में प्रकाशित किया गया.

प्राप्त रिकॉर्ड के अनुसार राजा सरफोजी “धनवंतरी महल” के नाम से आँखों का अस्पताल चलाते थे जहाँ उनके सहायक एक अंग्रेज डॉक्टर मैक्बीन थे. शंकर नेत्रालय के निदेशक डॉक्टर ज्योतिर्मय बिस्वास ने बताया कि इस वर्ष दुबई में आयोजित विश्व औपथेल्मोलौजी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में हमने इसी विषय पर अपना रिसर्च पेपर प्रस्तुत किया और विशेषज्ञों ने माना कि नेत्र चिकित्सा के क्षेत्र में सारा क्रेडिट अक्सर यूरोपीय चिकित्सकों को दे दिया जाता है जबकि भारत में उस काल में की जाने वाले आई-सर्जरी को कोई स्थान ही नहीं है. डॉक्टर बिस्वास एवं शंकरा नेत्रालय चेन्नई की टीम ने मराठा शासक राजा सरफोजी के कालखंड की हस्तलिखित प्रतिलिपियों में पाँच वर्ष से साठ वर्ष के 44 मरीजों का स्पष्ट रिकॉर्ड प्राप्त किया. प्राप्त अंतिम रिकॉर्ड के अनुसार राजा सर्फोजी ने 9 सितम्बर 1827 को एक ऑपरेशन किया था, जिसमें किसी “विशिष्ट नीले रंग की गोली” का ज़िक्र है. इस विशिष्ट गोली का ज़िक्र इससे पहले भी कई बार आया हुआ है, परन्तु इस दवाई की संरचना एवं इसमें प्रयुक्त रसायनों के बारे में कोई नहीं जानता. राजा सरफोजी द्वारा आँखों के ऑपरेशन के बाद इस नीली गोली के चार डोज़ दिए जाने के सबूत भी मिलते हैं.

प्राप्त दस्तावेजों के अनुसार ऑपरेशन में बेलाडोना पट्टी, मछली का तेल, चौक पावडर तथा पिपरमेंट के उपयोग का उल्लेख मिलता है. साथ ही जो मरीज उन दिनों ऑपरेशन के लिए राजी हो जाते थे, उन्हें ठीक होने के बाद प्रोत्साहन राशि एवं ईनाम के रूप में “पूरे दो रूपए” दिए जाते थे, जो उन दिनों भारी भरकम राशि मानी जाती थी. कहने का तात्पर्य यह है कि भारतीय इतिहास और संस्कृति में ऐसा बहुत कुछ छिपा हुआ है (बल्कि जानबूझकर छिपाया गया है) जिसे जानने-समझने और जनता तक पहुँचाने की जरूरत है… अन्यथा पश्चिमी और वामपंथी इतिहासकारों द्वारा भारतीयों को खामख्वाह “हीनभावना” से ग्रसित रखे जाने का जो षडयंत्र रचा गया है उसे छिन्न-भिन्न कैसे किया जाएगा… (आजकल के बच्चों को तो यह भी नहीं मालूम कि “मराठा साम्राज्य”, और “विजयनगरम साम्राज्य” नाम का एक विशाल शौर्यपूर्ण इतिहास मौजूद है… वे तो सिर्फ मुग़ल साम्राज्य के बारे में जानते हैं…).

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विश्व के पहले शल्य चिकित्सक – आचार्य सुश्रुत || Father of Surgery : Sushruta

सुश्रुत प्राचीन भारत के महान चिकित्साशास्त्री एवं शल्यचिकित्सक थे। उनको शल्य चिकित्सा का जनक कहा जाता है

शल्य चिकित्सा (Surgery) के पितामह और ‘सुश्रुत संहिता’ के प्रणेता आचार्य सुश्रुत का जन्म छठी शताब्दी ईसा पूर्व में काशी में हुआ था। इन्होंने धन्वन्तरि से शिक्षा प्राप्त की। सुश्रुत संहिता को भारतीय चिकित्सा पद्धति में विशेष स्थान प्राप्त है।

(सुश्रुत संहिता में सुश्रुत को विश्वामित्र का पुत्र कहा है। विश्वामित्र से कौन से विश्वामित्र अभिप्रेत हैं, यह स्पष्ट नहीं। सुश्रुत ने काशीपति दिवोदास से शल्यतंत्र का उपदेश प्राप्त किया था। काशीपति दिवोदास का समय ईसा पूर्व की दूसरी या तीसरी शती संभावित है। सुश्रुत के सहपाठी औपधेनव, वैतरणी आदि अनेक छात्र थे। सुश्रुत का नाम नावनीतक में भी आता है। अष्टांगसंग्रह में सुश्रुत का जो मत उद्धृत किया गया है; वह मत सुश्रुत संहिता में नहीं मिलता; इससे अनुमान होता है कि सुश्रुत संहिता के सिवाय दूसरी भी कोई संहिता सुश्रुत के नाम से प्रसिद्ध थी। सुश्रुत के नाम पर आयुर्वेद भी प्रसिद्ध हैं। यह सुश्रुत राजर्षि शालिहोत्र के पुत्र कहे जाते हैं (शालिहोत्रेण गर्गेण सुश्रुतेन च भाषितम् – सिद्धोपदेशसंग्रह)। सुश्रुत के उत्तरतंत्र को दूसरे का बनाया मानकर कुछ लोग प्रथम भाग को सुश्रुत के नाम से कहते हैं; जो विचारणीय है। वास्तव में सुश्रुत संहिता एक ही व्यक्ति की रचना है।)

सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से समझाया गया है। शल्य क्रिया के लिए सुश्रुत 125 तरह के उपकरणों का प्रयोग करते थे। ये उपकरण शल्य क्रिया की जटिलता को देखते हुए खोजे गए थे। इन उपकरणों में विशेष प्रकार के चाकू, सुइयां, चिमटियां आदि हैं। सुश्रुत ने 300 प्रकार की ऑपरेशन प्रक्रियाओं की खोज की। सुश्रुत ने कॉस्मेटिक सर्जरी में विशेष निपुणता हासिल कर ली थी। सुश्रुत नेत्र शल्य चिकित्सा भी करते थे। सुश्रुतसंहिता में मोतियाबिंद के ओपरेशन करने की विधि को विस्तार से बताया गया है। उन्हें शल्य क्रिया द्वारा प्रसव कराने का भी ज्ञान था। सुश्रुत को टूटी हुई हड्डियों का पता लगाने और उनको जोडऩे में विशेषज्ञता प्राप्त थी। शल्य क्रिया के दौरान होने वाले दर्द को कम करने के लिए वे मद्यपान या विशेष औषधियां देते थे। मद्य संज्ञाहरण का कार्य करता था। इसलिए सुश्रुत को संज्ञाहरण का पितामह भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त सुश्रुत को मधुमेह व मोटापे के रोग की भी विशेष जानकारी थी। सुश्रुत श्रेष्ठ शल्य चिकित्सक होने के साथ-साथ श्रेष्ठ शिक्षक भी थे। उन्होंने अपने शिष्यों को शल्य चिकित्सा के सिद्धांत बताये और शल्य क्रिया का अभ्यास कराया। प्रारंभिक अवस्था में शल्य क्रिया के अभ्यास के लिए फलों, सब्जियों और मोम के पुतलों का उपयोग करते थे। मानव शारीर की अंदरूनी रचना को समझाने के लिए सुश्रुत शव के ऊपर शल्य क्रिया करके अपने शिष्यों को समझाते थे। सुश्रुत ने शल्य चिकित्सा में अद्भुत कौशल अर्जित किया तथा इसका ज्ञान अन्य लोगों को कराया। इन्होंने शल्य चिकित्सा के साथ-साथ आयुर्वेद के अन्य पक्षों जैसे शरीर सरंचना, काय चिकित्सा, बाल रोग, स्त्री रोग, मनोरोग आदि की जानकारी भी दी है.

सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद के तीन मूलभूत ग्रन्थों में से एक है। आठवीं शताब्दी में इस ग्रन्थ का अरबी भाषा में ‘किताब-ए-सुस्रुद’ नाम से अनुवाद हुआ था। सुश्रुतसंहिता में १८४ अध्याय हैं जिनमें ११२० रोगों, ७०० औषधीय पौधों, खनिज-स्रोतों पर आधारित ६४ प्रक्रियाओं, जन्तु-स्रोतों पर आधारित ५७ प्रक्रियाओं, तथा आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का उल्लेख है।

सुश्रुत संहिता दो खण्डों में विभक्त है : पूर्वतंत्र तथा उत्तरतंत्र

पूर्वतंत्र : पूर्वतंत्र के पाँच भाग हैं- सूत्रस्थान, निदानस्थान, शरीरस्थान, कल्पस्थान तथा चिकित्सास्थान । इसमें १२० अध्याय हैं जिनमें आयुर्वेद के प्रथम चार अंगों (शल्यतंत्र, अगदतंत्र, रसायनतंत्र, वाजीकरण) का विस्तृत विवेचन है। (चरकसंहिता और अष्टांगहृदय ग्रंथों में भी १२० अध्याय ही हैं।)

उत्तरतंत्र : इस तंत्र में ६४ अध्याय हैं जिनमें आयुर्वेद के शेष चार अंगों (शालाक्य, कौमार्यभृत्य, कायचिकित्सा तथा भूतविद्या) का विस्तृत विवेचन है। इस तंत्र को ‘औपद्रविक’ भी कहते हैं क्योंकि इसमें शल्यक्रिया से होने वाले ‘उपद्रवों’ के साथ ही ज्वर, पेचिस, हिचकी, खांसी, कृमिरोग, पाण्डु (पीलिया), कमला आदि का वर्णन है। उत्तरतंत्र का एक भाग ‘शालाक्यतंत्र’ है जिसमें आँख, कान, नाक एवं सिर के रोगों का वर्णन है।

सुश्रुतसंहिता में आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का वर्णन है:

(१) छेद्य (छेदन हेतु)
(२) भेद्य (भेदन हेतु)
(३) लेख्य (अलग करने हेतु)
(४) वेध्य (शरीर में हानिकारक द्रव्य निकालने के लिए)
(५) ऐष्य (नाड़ी में घाव ढूंढने के लिए)
(६) अहार्य (हानिकारक उत्पत्तियों को निकालने के लिए)
(७) विश्रव्य (द्रव निकालने के लिए)
(८) सीव्य (घाव सिलने के लिए)

सुश्रुत संहिता में शल्य क्रियाओं के लिए आवश्यक यंत्रों (साधनों) तथा शस्त्रों (उपकरणों) का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। इस महान ग्रन्थ में २४ प्रकार के स्वास्तिकों, २ प्रकार के संदसों (), २८ प्रकार की शलाकाओं तथा २० प्रकार की नाड़ियों (नलिका) का उल्लेख हुआ है। इनके अतिरिक्त शरीर के प्रत्येक अंग की शस्त्र-क्रिया के लिए बीस प्रकार के शस्त्रों (उपकरणों) का भी वर्णन किया गया है। ऊपर जिन आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का संदर्भ आया है, वे विभिन्न साधनों व उपकरणों से की जाती थीं। उपकरणों (शस्त्रों) के नाम इस प्रकार हैं-

  1. अर्द्धआधार,
  2. अतिमुख,
  3. अरा,
  4. बदिशा
  5. दंत शंकु,
  6. एषणी,
  7. कर-पत्र,
  8. कृतारिका,
  9. कुथारिका,
  10. कुश-पात्र,
  11. मण्डलाग्र,
  12. मुद्रिका,
  13. नख
  14. शस्त्र,
  15. शरारिमुख,
  16. सूचि,
  17. त्रिकुर्चकर,
  18. उत्पल पत्र,
  19. वृध-पत्र,
  20. वृहिमुख
    तथा
  21. वेतस-पत्र

आज से कम से कम तीन हजार वर्ष पूर्व सुश्रुत ने सर्वोत्कृष्ट इस्पात के उपकरण बनाये जाने की आवश्यकता बताई। आचार्य ने इस पर भी बल दिया है कि उपकरण तेज धार वाले हों तथा इतने पैने कि उनसे बाल को भी दो हिस्सों में काटा जा सके। शल्यक्रिया से पहले व बाद में वातावरण व उपकरणों की शुद्धता (रोग-प्रतिरोधी वातावरण) पर सुश्रुत ने विशेष जोर दिया है। शल्य चिकित्सा (सर्जरी) से पहले रोगी को संज्ञा-शून्य करने (एनेस्थेशिया) की विधि व इसकी आवश्यकता भी बताई गई है।

इन उपकरणों के साथ ही आवश्यकता पड़ने पर बांस, स्फटिक तथा कुछ विशेष प्रकार के प्रस्तर खण्डों का उपयोग भी शल्य क्रिया में किया जाता था। शल्य क्रिया के मर्मज्ञ महर्षि सुश्रुत ने १४ प्रकार की पट्टियों का विवरण किया है। उन्होंने हड्डियों के खिसकने के छह प्रकारों तथा अस्थिभंग के १२ प्रकारों की विवेचना की है। यही नहीं, सुश्रुतसंहिता में कान संबंधी बीमारियों के २८ प्रकार तथा नेत्र-रोगों के २६ प्रकार बताए गए हैं।

सुश्रुत संहिता में मनुष्य की आंतों में कर्कट रोग (कैंसर) के कारण उत्पन्न हानिकर तन्तुओं (टिश्युओं) को शल्य क्रिया से हटा देने का विवरण है। शल्यक्रिया द्वारा शिशु-जन्म (सीजेरियन) की विधियों का वर्णन किया गया है। ‘न्यूरो-सर्जरी‘ अर्थात्‌ रोग-मुक्ति के लिए नाड़ियों पर शल्य-क्रिया का उल्लेख है तथा आधुनिक काल की सर्वाधिक पेचीदी क्रिया ‘प्लास्टिक सर्जरी‘ का सविस्तार वर्णन सुश्रुत के ग्रन्थ में है।

अस्थिभंग, कृत्रिम अंगरोपण, प्लास्टिक सर्जरी, दंतचिकित्सा, नेत्रचिकित्सा, मोतियाबिंद का शस्त्रकर्म, पथरी निकालना, माता का उदर चीरकर बच्चा पैदा करना आदि की विस्तृत विधियाँ सुश्रुतसंहिता में वर्णित हैं।

सुश्रुत सहिंता को हिंदी में पढने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करे -> http://peterffreund.com/Vedic_Literature/sushruta/

सुश्रुत सहिंता को अंग्रेजी में पढने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करे -> http://chestofbooks.com/health/india/Sushruta-Samhita/index.html

सुश्रुत संहिता में मनुष्य की आंतों में कर्कट रोग (कैंसर) के कारण उत्पन्न हानिकर तन्तुओं (टिश्युओं) को शल्य क्रिया से हटा देने का विवरण है।

शल्यक्रिया द्वारा शिशु-जन्म (सीजेरियन) की विधियों का वर्णन किया गया है।

‘न्यूरो-सर्जरी‘ अर्थात्‌ रोग-मुक्ति के लिए नाड़ियों पर शल्य-क्रिया का उल्लेख है तथा आधुनिक काल की सर्वाधिक पेचीदी क्रिया ‘प्लास्टिक सर्जरी‘ का सविस्तार वर्णन सुश्रुत के ग्रन्थ में है।

आधुनिकतम विधियों का भी उल्लेख इसमें है। कई विधियां तो ऐसी भी हैं जिनके सम्बंध में आज का चिकित्सा शास्त्र भी अनभिज्ञ है।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में शल्य क्रिया अत्यंत उन्नत अवस्था में थी, जबकि शेष विश्व इस विद्या से बिल्कुल अनभिज्ञ था।

अतुल्यवैज्ञानिक भारत

स्वास्थ्य के लिए ध्यान रखने योग्य टिप्स

1.योग,भोग और रोग ये तीन अवस्थाएं है।

  1. लकवा – सोडियम की कमी के कारण होता है ।
  2. हाई वी पी में – स्नान व सोने से पूर्व एक गिलास जल का सेवन करें तथा स्नान करते समय थोड़ा सा नमक पानी मे डालकर स्नान करे ।
  3. लो बी पी – सेंधा नमक डालकर पानी पीयें ।
  4. कूबड़ निकलना- फास्फोरस की कमी ।
  5. कफ – फास्फोरस की कमी से कफ बिगड़ता है , फास्फोरस की पूर्ति हेतु आर्सेनिक की उपस्थिति जरुरी है । गुड व शहद खाएं
  6. दमा, अस्थमा – सल्फर की कमी ।
  7. सिजेरियन आपरेशन – आयरन , कैल्शियम की कमी ।
  8. सभी क्षारीय वस्तुएं दिन डूबने के बाद खायें ।
  9. अम्लीय वस्तुएं व फल दिन डूबने से पहले खायें ।
  10. जम्भाई- शरीर में आक्सीजन की कमी ।
  11. जुकाम – जो प्रातः काल जूस पीते हैं वो उस में काला नमक व अदरक डालकर पियें ।
  12. ताम्बे का पानी – प्रातः खड़े होकर नंगे पाँव पानी ना पियें ।
  13. किडनी – भूलकर भी खड़े होकर गिलास का पानी ना पिये ।
  14. गिलास एक रेखीय होता है तथा इसका सर्फेसटेन्स अधिक होता है । गिलास अंग्रेजो ( पुर्तगाल) की सभ्यता से आयी है अतः लोटे का पानी पियें, लोटे का कम सर्फेसटेन्स होता है ।
  15. अस्थमा , मधुमेह , कैंसर से गहरे रंग की वनस्पतियाँ बचाती हैं ।
  16. वास्तु के अनुसार जिस घर में जितना खुला स्थान होगा उस घर के लोगों का दिमाग व हृदय भी उतना ही खुला होगा ।
  17. परम्परायें वहीँ विकसित होगीं जहाँ जलवायु के अनुसार व्यवस्थायें विकसित होगीं ।
  18. पथरी – अर्जुन की छाल से पथरी की समस्यायें ना के बराबर है ।
  19. RO का पानी कभी ना पियें यह गुणवत्ता को स्थिर नहीं रखता । कुएँ का पानी पियें । बारिस का पानी सबसे अच्छा , पानी की सफाई के लिए सहिजन की फली सबसे बेहतर है ।
  20. सोकर उठते समय हमेशा दायीं करवट से उठें या जिधर का स्वर चल रहा हो उधर करवट लेकर उठें ।
  21. पेट के बल सोने से हर्निया, प्रोस्टेट, एपेंडिक्स की समस्या आती है ।
  22. भोजन के लिए पूर्व दिशा , पढाई के लिए उत्तर दिशा बेहतर है ।
  23. HDL बढ़ने से मोटापा कम होगा LDL व VLDL कम होगा ।
  24. गैस की समस्या होने पर भोजन में अजवाइन मिलाना शुरू कर दें ।
  25. चीनी के अन्दर सल्फर होता जो कि पटाखों में प्रयोग होता है , यह शरीर में जाने के बाद बाहर नहीं निकलता है। चीनी खाने से पित्त बढ़ता है ।
  26. शुक्रोज हजम नहीं होता है फ्रेक्टोज हजम होता है और भगवान् की हर मीठी चीज में फ्रेक्टोज है ।
  27. वात के असर में नींद कम आती है ।
  28. कफ के प्रभाव में व्यक्ति प्रेम अधिक करता है ।
  29. कफ के असर में पढाई कम होती है ।
  30. पित्त के असर में पढाई अधिक होती है ।
  31. आँखों के रोग – कैट्रेक्टस, मोतियाविन्द, ग्लूकोमा , आँखों का लाल होना आदि ज्यादातर रोग कफ के कारण होता है ।
  32. शाम को वात -नाशक चीजें खानी चाहिए ।
  33. प्रातः 4 बजे जाग जाना चाहिए ।
  34. सोते समय रक्त दवाव सामान्य या सामान्य से कम होता है ।
  35. व्यायाम – वात रोगियों के लिए मालिश के बाद व्यायाम , पित्त वालों को व्यायाम के बाद मालिश करनी चाहिए । कफ के लोगों को स्नान के बाद मालिश करनी चाहिए ।
  36. भारत की जलवायु वात प्रकृति की है , दौड़ की बजाय सूर्य नमस्कार करना चाहिए ।
  37. जो माताएं घरेलू कार्य करती हैं उनके लिए व्यायाम जरुरी नहीं ।
  38. निद्रा से पित्त शांत होता है , मालिश से वायु शांति होती है , उल्टी से कफ शांत होता है तथा उपवास(लंघन) से बुखार शांत होता है ।
  39. भारी वस्तुयें शरीर का रक्तदाब बढाती है , क्योंकि उनका गुरुत्व अधिक होता है ।
  40. दुनियां के महान वैज्ञानिक का स्कूली शिक्षा का सफ़र अच्छा नहीं रहा, चाहे वह 8 वीं फेल न्यूटन हों या 9 वीं फेल आइस्टीन हों ,
  41. माँस खाने वालों के शरीर से अम्ल-स्राव करने वाली ग्रंथियाँ प्रभावित होती हैं ।
  42. तेल हमेशा गाढ़ा खाना चाहिएं सिर्फ लकडी वाली घाणी का , दूध हमेशा पतला पीना चाहिए ।
    45.छिलके वाली दाल-सब्जियों से कोलेस्ट्रोल हमेशा घटता है ।
  43. कोलेस्ट्रोल की बढ़ी हुई स्थिति में इन्सुलिन खून में नहीं जा पाता है । ब्लड शुगर का सम्बन्ध ग्लूकोस के साथ नहीं अपितु कोलेस्ट्रोल के साथ है ।
    47.मिर्गी दौरे में अमोनिया या चूने की गंध सूँघानी चाहिए ।
    48.सिरदर्द में एक चुटकी नौसादर व अदरक का रस रोगी को सुंघायें ।
  44. भोजन के पहले मीठा खाने से बाद में खट्टा खाने से शुगर नहीं होता है ।
    50.भोजन के आधे घंटे पहले सलाद खाएं उसके बाद भोजन करें ।
  45. अवसाद में आयरन , कैल्शियम , फास्फोरस की कमी हो जाती है । फास्फोरस गुड और अमरुद में अधिक है
  46. पीले केले में आयरन कम और कैल्शियम अधिक होता है । हरे केले में कैल्शियम थोडा कम लेकिन फास्फोरस ज्यादा होता है तथा लाल केले में कैल्शियम कम आयरन ज्यादा होता है । हर हरी चीज में भरपूर फास्फोरस होती है, वही हरी चीज पकने के बाद पीली हो जाती है जिसमे कैल्शियम अधिक होता है ।
  47. छोटे केले में बड़े केले से ज्यादा कैल्शियम होता है ।
    54.रसौली की गलाने वाली सारी दवाएँ चूने से बनती हैं ।
  48. हेपेटाइट्स A से E तक के लिए चूना बेहतर है ।
  49. एंटी टिटनेस के लिए हाईपेरियम 200 की दो-दो बूंद 10-10 मिनट पर तीन बार दे ।
  50. ऐसी चोट जिसमे खून जम गया हो उसके लिए नैट्रमसल्फ दो-दो बूंद 10-10 मिनट पर तीन बार दें । बच्चो को एक बूंद पानी में डालकर दें ।
  51. मोटे लोगों में कैल्शियम की कमी होती है अतः त्रिफला दें । त्रिकूट ( सोंठ+कालीमिर्च+ मघा पीपली ) भी दे सकते हैं ।
  52. अस्थमा में नारियल दें । नारियल फल होते हुए भी क्षारीय है ।दालचीनी + गुड + नारियल दें ।
  53. चूना बालों को मजबूत करता है तथा आँखों की रोशनी बढाता है ।

🛕 वास्तु ज्ञानामृत 🛕कैसे सोते हैं आप? पढ़िए आपके काम की 10 बातें

🛕 वास्तु ज्ञानामृत 🛕
कैसे सोते हैं आप? पढ़िए आपके काम की 10 बातें
हम 24 घंटे में से कम से कम 8 घंटे बिस्तर पर सोते हैं। तो यह जानना जरूरी है कि सोने से पहले क्या करना चाहिए, क्योंकि इसी पर हमारा भविष्‍य टिका हुआ है।
जिस बिस्तर पर हम 6 से 8 घंटे रहते हैं यदि वह हमारी मनमर्जी का है तो शरीर के सारे संताप मिट जाते हैं। दिनभर की थकान उतर जाएगी। अत: बिस्तर सुंदर, मुलायम और आरामदायक तो होना ही चाहिए, साथ ही वह मजबूत भी होना चाहिए। चादर और तकिये का रंग भी ऐसा होना चाहिए, जो हमारी आंखों और मन को सुकून दें।
सोने से पूर्व प्रतिदिन कर्पूर जलाकर सोएंगे तो आपको बेहद अच्‍छी नींद आएगी और साथ ही हर तरह का तनाव खत्म हो जाएगा। कर्पूर के और भी कई लाभ होते हैं।
सोने से पूर्व आप बिस्तर पर वे बातें सोचें, जो आप जीवन में चाहते हैं। जरा भी नकारात्मक बातों का खयाल न करें, क्योंकि सोने के पूर्व के 10 मिनट तक का समय बहुत संवेदनशील होता है जबकि आपका अवचेतन मन जाग्रत होने लगता है और उठने के बाद का कम से कम 15 मिनट का समय भी बहुत ही संवेदनशील होता है। इस दौरान आप जो भी सोचते हैं वह वास्तविक रूप में घटित होने लगता है।
आप सोने जा रहे हैं तो यह भी तय करें कि आपके पैर किस दिशा में हैं। दक्षिण और पूर्व में कभी पैर न रखें। पैरों को दरवाजे की दिशा में भी न रखें। इससे सेहत और समृद्धि का नुकसान होता है। पूर्व दिशा में सिर रखकर सोने से ज्ञान में बढ़ोतरी होती है। दक्षिण में सिर रखकर सोने से शांति, सेहत और समृद्धि मिलती है।
झूठे मुंह और बगैर पैर धोए नहीं सोना चाहिए।
अधोमुख होकर, दूसरे की शय्या पर, टूटे हुए पलंग पर तथा गंदे घर में नहीं सोना चाहिए।
कहते हैं कि सीधा सोए योगी, डामा(बांया) सोए निरोगी, जीमना(दांया) सोए रोगी। शरीर विज्ञान कहता है कि चित्त सोने से रीढ़ की हड्डी को नुकसान पहुंचता है जबकि औंधा सोने से आंखों को नुकसान होता है।
सोने से 2 घंटे पूर्व रात का खाना खा लेना चाहिए। रात का खाना हल्का और सात्विक होना चाहिए।
अच्छी नींद के लिए खाने के बाद वज्रासन करें, फिर भ्रामरी प्राणायाम करें और अंत में शवासन करते हुए सो जाएं।
10.सोने से पहले अपने ईष्ट देव का एकबार ध्यान जरूर करें और फिर प्रार्थना कर के लिए

आँजणा कलबी ,पटेल ,पाटीदार , चौधरी , कुलबी ,आँजणा पटेल ,आँजणा चौधरी, का इतिहास

इतिहास शब्द एक ऐसा शब्द हे जो इस धरती पर इंसान की उत्पत्ति से लेकर आज तक की हर गति विधि, हर जीव जंतु की उत्तपत्ति ,सब तरह के ज्ञान से सब तरह के बोध से हमें अवगत कराता हे !सर्वप्रथम धरती पर इंसान की उतपत्ति हुई धीरे धीरे वक्त ने करवट बदली और युग थोड़ा आगे बढ़ा , और इंसानो ने ही अपनी सुविधा के लिए सहूलियत के लिए मानव को उनके कार्य के आधार पर उन्हें अलग अलग वर्णो में बाँट दिया गया ! क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और भ्रामण ,आगे बढ़ते बढ़ते भारत में कई जातिया , कई नख ,कई उपजातिया बन गई और आज जात- पात का एक जंजाल बन गया, हमारे देश में इतनी बड़ी मात्रा में जातियाँ और उपजातिया हे की हर कोई चाह रखता हे की हमारा भी कोई वजूद रहे ,हमारा भी कोई ,कही वजूद हो ,चाहेगा भी क्यों नहीं ,चाहना भी जरूरी हे और लाजमी हे !बिना वजूद के न तो कोई पूछता हे ना कोई जानता हे और बिना पूछे और बिना जाने आज की इस महसशक्कत भरी दुनिया में ज़िंदा रहना तक एक संघर्ष हे ! कई और हजारो कमजोर शाखाओ का कोई वजूद नहीं होता और मजबूत एक शाखा भी अपना वजूद रख सकती हे अपना परिचय मजबूती के नाम पर दे सकती हे स्थिरता और कठोरता के नाम पर दे सकती हे !
एक चार अक्षर के शब्द इतिहास का इतना बड़ा उल्लेख करने का मेरा मकसद यही हे की आखिर हमारा कलबी समाज का क्या हाल हे क्या इतिहास हे आज के समय में हमारी क्या स्तिथि हे हमारा क्या और कहा कहा वजूद हे !
संसार का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश सबसे बड़ा दूसरा जनसंख्या वाला देश हजारो जातियों ,,भाषाओ और बोलियो वाला देश , सभ्यता संस्कृति और ऋषि मुनिओ के देश के नाम से जाना जाने वाला वतन और इस भारत देश के नाम से यदि में कलबी समाज की तुलना करू तो शायद कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी ,क्योंकि आज कलबी पटेल समाज की यही विशेषताए हे जो हमारी पहचान बनाती हैं मेहनत मजदूरी ,सेवा, संस्कार,क्षमा , सहनशीलता यही हैँ हमारी विशेषताए !
अपनी समाज के इतिहास पर नजर डालने से पहले यह साफ़ करना बेहद जरुरी हे की आखिर मुझे इतने पुराने इतिहास पर एक दृष्टि डालने की जरुरत ही क्यों पड़ी !
क्योंकि जब जाति के आधार पर हमारे देश की जनसंख्या की जनगणना होने जा रही थी तब काफी जातियों के संघर्ष को मेने देखा ,उनकी लड़ाई को देखा ! हम जो की कई नमो से जाने जाते हे, अलग अलग नमो से जाने जाते हे ,,यह फैसला ही नहीं कर पाये की किस नाम को लेकर आगे चले आज भी यही हाल हैं की हम किस नाम से जाने जाये ! कई नामों से हमारी पहचान हे जैसे आँजणा ,पटेल ,पाटीदार , चौधरी , पीतल , कुलबी ,आँजणा पटेल ,आँजणा चौधरी, पटेल चौधरी ,देसाई आदि आदि ! इनमे से काफी तो पदवियाँ हैं जो की हम अपने नाम के साथ लगते हैं, और अपने आपको गोरवन्तित महसूस करते हैं पर हां कुछ लोग ऐसे भी जरूर मिलेंगे जो अपने नाम के साथ कलबी पटेल लगाने में बिलकुल भी संकोच नहीं करते !पर वो बहुत कम हैं ,एक जो आवाज गुंजनी चाहिए वो नहीं गूंजती !हमारे कई संगठन जो की पटेल शब्द से हैं कई चौधरी शब्द से हैं तो कई आँजना शब्द से हैं !कई पत्रिकाए हैं वो भी कोई पटेल कोई आँजणा पटेल, तो कोई आँजणा ,नाम से हैं इन सब की जगह यदि कलबी आँजणा शब्द का उल्लेख होता तो अपनी एक पहचान बनाने में ,एक नाम एक समाज कहने में कोई परेशानी नहीं होती !अलग अलग नामों से अपनी पहचान देने से हमें अपने आपको उपस्थित करने में बड़ी परेशानी होती हैं! यदि हमारी सामाज चाहे की हमारा एक नाम हो एक समाज का एक नाम हो , एक परिचय हो तो हमें अलग अलग नमो की बजाय एक नाम कलबी आँजणा ही देना आरम्भ कर देना चाहिए ! फिर सब नामो को छोड़कर हम सिर्फ कलबी आँजणा ही कहलाने लग जायेंगे फिर हमें अपने आपको को अपनी पहचान के लिए किसी को कहना या उल्लेख नहीं करना पडेगा की हम कलबी आँजणा हैं श्री राजारामजी वाले, और हमारा नाम कलबी आँजणा होने का उल्लेख कई ग्रंथो में लिखित हैं ! और कई समाजसेवियों द्वारा पत्र पत्रिकाओ में हमारे समाज के इस नाम के इतिहास का उल्लेख किया गया हैं!
हमारे समाज के लोगो में अपने नाम के साथ कलबी आँजणा लगाने में कई तरह की भ्रान्तियां और संकोच हैं ! इस तरह के संकोच को दूर करने के लिए और एक नाम एक समाज की लड़ाई को बरकरार रखते हुए में समस्त समाज बंधुओ के सामने अपने नाम के इतिहास को लेकर कुछ पंक्तिया प्रकट कर रहा हूँ जो कि मैने भी कही न कही समाज के ही इतिहास में पढ़ी हैं जो हमारे समस्त संकोचों को दूर कर देगी…………पुराने समय में कई युगो का अवतरण हुआ कई युगो का आगमन हुआ कई युगो का नाम हुआ उनका राज हुआ ……आज से करीब करीब ढाई तीन हजार वर्ष पूर्व की बात हैं हमारे देश में आर्यो का युग था । उस समय के वैदिक आर्यो के समाज के अपने वर्ण थे और वैदिक आर्यो के चार वर्णो में एक वर्ण था क्षत्रिय वर्ण, उनके क्षत्रिय वर्ण में हमारे पुरखो की गणना की जाती थी। उनके काल में जब युद्ध होते थे आपसी लड़ाईयाँ होती थी तब क्षत्रिय कहलाने वाले हमारे पूर्वज योद्धा बनकर अपनी सेवा देते थे । लेकिन जब शांति का समय होता था ,तब वो लोग अपना पेट पालने के लिए , अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए और सभी की सेवा के लिए अन्न उत्त्पन्न करने का कार्य करते थे ,और अन्न उत्तपन्न करना ,हल चलाना ,खेती करने के लिए उनका मुख्य औजार हल था तो उन्हें हली क्षत्रिय के नाम से पुकारा जाने लगा। और वो एक ऐसा वक्त था जब भारत का ईरानी लोगो के साथ संपर्क होना शुरु हो गया था , उनके आपसी संपर्क और भाषा का तालमेल था , ईरानी लोग खेती के औजार हल को कुलबा बोलते थे .और उन्होंने हमारे पुरखो को हली क्षत्रिय की जगह कुलबी क्षत्रिय कहना शुरु कर दिया ! उस समय जैसे जैसे उनकी जनसंख्या बढ़ती गई तो अपनी रोजमर्रा की जिंदगी को जारी रखते हुए अपना पेट पालने के लिए घूमते फिरते गुजरात की और रुख किया और गुजरात की किसी आजन्यु यानी की अजान भूमि पर पहुंच गए और वहा रहकर अपनी आजीविका शुरु की! धीरे धीरे उस अजान भूमि पर उन्होंने अपना सामज्य स्थापित किया और ब्रजपाल को अपना राजा बनाया ! मध्य काल की शुरुआत हो चुकी थी ! जनसंख्या बढ़ने लगी तो वहां से उठ कर कुछ पुरखो ने अजान प्रदेश के उत्तर यानि की राजस्थान की तरफ रुख किया और मारवाड़ क्षेत्र के श्रीमाल भाग पर जो की राजस्थान के जालोर जिला के भीनमाल के आसपास का क्षेत्र माना जाता हे ! वहां पहूँचकर अपना बसेरा डाला और अपनी आजीविका प्रारम्भ की इधर के लोगो ने इन्हे अजान भू भाग से आने के कारण उन्हें अजान कहा !
ऐसा होना भी स्वाभाविक था क्यों की आज भी हम जो गुजरात से आता हे उसे गुजराती और पंजाब से आता हे वो पंजाबी आदि कहते हैं ! तो इस तरह हमारे पूर्वजो के यहाँ तक पहुँचते पहुँचते “अजान कुलबी क्षत्रिय” कहा जाने लगा था, और इसके बजाय की उन्होंने क्षत्रिय कर्मो को पूर्ण रूप से त्याग दिया और हल चलना ही अपना मुख्य कर्म बना लिया उसे ही अपनी आजीविका का साधन बना लिया , धीरे धीरे पुरे राजस्थान ,मध्य प्रदेश और गुजरात तीन राज्यों में फेल गए और बदलती परिस्थितियों के साथ साथ समाज के काम काज में भी कुछ बदलाव आया और इन्होने व्यापार की तरफ भी रुख किया और इस क्षेत्र में भी अपनी अच्छी पहचान बना चुके हैं आज खेती , व्यापार , सरकारी नौकरी , सेवा , हर जगह कलबी पटेल समाज की अच्छी पकड़ हैं आज लगभग पुरे भारत के हर कोने में अपना व्यापार फैलाए हुए हैं, और समय बदलने के साथ साथ कुलबी क्षत्रिय की जगह “आँजणा कुलबी” को ही अपना नाम परिचय रखा कर अपनी पहचान आँजणा कुलबी से ही देने लगे .अतः कुलबी शब्द एक अपभ्रंश शब्द हे तो कुलबी को सिर्फ कलबी ही बोला जाने लगा और “आँजणा कुलबी” की जगह “आँजणा कलबी” ही रह गया .! इस तरह ग्रंथो में लिखित उलेख बताता हे की आज से लगभग ढाई तीन हजार साल पहले हमारे पूर्वजो को “कलबी क्षत्रिय” के नाम से जाना जाने लगा था और करीब करीब १४०० वर्ष पूर्व वो आंजना कुलबी के नाम से अपनी पहचान बना चुके थे ! कही कही कुर्मी और कुलबी शब्द का भी काफी जोड़ तोड़कर उल्लेख हे पर वैसे देखा जाये तो दोनों ही शब्द एक हे और इनका काम और मकसद भी एक ही था और हे , खेती करने वाले ! भारत में लगभग 1488 तरह के कुलबियो के होने का उल्लेख हे जो को हमारी आँजणा कलबी समाज की ही तरह कई तरह की शाखाओ में विभक्त हे उनका भी उल्लेख हे की उनकी भी उत्पत्ति क्षत्रिय वर्ण से हुई मानी जाती हे पर उनकी वर्ण ,,गोत्र ,,नख हमसे और हमारी समाज से काफी भिन्नता रखते हे ! लेकिन हमारी हमारे क्षत्रिय वर्ग को कुल चौदह शाखाओ में यानि की वर्णो में विभाजित किया गया हे जो हे ..१. चौहान २.तंवर ,३.चौड़ा ४. झाला ५. सोलंकी ६.सिसोदिया ७ यादव ८.परिहार ९. कच्छवाह १०.राठौर ११. गोयल १२. जेठवा १३. परमार और १४. मकवाना !और चौदह वर्णो को २५० गोत्र के रूप में विभाजित किया गया हे .जैसे ,, काग , कुकल ,कर्ड, कोदली ,बोका ,तरक,भोड़,धूलिया,दुनिया,मोर,मुजी,रातडा,ओड, वागडा,भूरिया, जुडाल,काला,कोदली,फक बूबी,,,केउरी ,,,,,,, ?
इस तरह हमारे समाज के सम्पूर्ण इतिहास के तोर पर हमारी नार्वो के तोर पर और हमारी गोत्रो के तोर पर ,,,सब को मध्येनजर रखते हुए यह कहा जाना उचित ही होगा की हमारी उत्त्पत्ति वैदिक आर्यो के क्षत्रिय वर्ण से हुई हे !अतः हमें अपना परिचय आँजणा कलबी नाम से देने में कोई अतिश्योक्ती नहीं होनी चाहिए !
हम “”आँजणा कलबी”” हे और हमारा परिचय हमें “”आँजणा कलबी”” नाम से ही देना चाहिए !

जय श्री राजेश्वर भगवान