रुपारामजी तरक किलवा का इतिहास

श्री आंजणा समाज का इतिहास

रुपारामजी तरक किलवा एक #युगपुरुषराजस्थान राज्य के जालौर जिले के सांचौर तहसील से पश्चिम दिशा लगभग तीन कोस की दूरी पर स्थित किलवा गांव में उस समय के आंजना समाज के एक किसान श्री सोमजी तरक के घर सन् 1350 (संवत् 1406) में एक पुत्र का जन्म हुआ और पिताश्री सोमजी ने अपने पुत्र का नाम रुपाराम रखा।रुपजी अपनी माता पिता चौथी संतान थे
रुपाराम बचपन से ही ज़िद्द के पक्के थे और मात्र सात वर्ष की उम्र में ही उनको काफी समझ आ चुकी थी
आठ वर्ष की उम्र में रूपाजी तरक के माता-पिता का स्वर्गवास हो गया औ उनकी तीक्ष्ण बुद्धि, प्रतिभा देखकर रूपाजी के पिताश्री सोमजी के मित्र (एक व्यापारी/बालदी) अपने साथ रूपारामजी को लेकर गए और रुपजी ने पूरे मारवाड़,गुजरात मालवा में व्यापारी के रूप में भ्रमण किया और समाजिक रिती रिवाज़ को बखूबी समझा लगभग 15 साल की उम्र में रूपारामजी वापस किलवा आ गए।

रूपारामजी के पिताजी सज्जन पुरुष थे उनका गांव में सभी लोग सम्मान करते थे। रुपारामजी किलवा रावले पहुंचे तो कुंवर ने सम्मान के साथ रूपजी का स्वागत किया और अपने गांव में स्थाई रूप से रहने का आग्रह किया और कृषि के लिए बहुत सारी जमीन रूपजी को दी,रुपाजी वहीं पर रहने लगे।

उस समय कुंवर के पिताजी का स्वर्गवास हो गया था और कुंवर अब ठाकुर बन गये थे ठाकुर के माताजी जीवित थे उन्होंने रुपजी की प्रतिभा देखकर उनको अपने कुंवर के राजकाज के सलाहकार के रूप में नियुक्त कर दिया। कलबी समाज की वेषभूषा पूरी तरह से सफेद होती है क्योंकि वो लोग साफ मन के होते हैं और सफेद साफ (उजले) बिना दाग का प्रतीक माना जाता है एक दिन ठाकु की माताजी ने रूपजी से कहा था,अपनी समाज को उजली करना अर्थात् समाज और हिन्दू समाज के भविष्य को उज्जवल करना। रूपाजी ने ठाकुर के माताजी को जबान (वचन) दिया था कि आपकी इच्छा पूरी करूंगा।
रूपारामजी ने सांचौर के राव राजा के साथ बहुत से युद्धों में भाग लिया था वो कुशल सेनानायक और जुबान के पक्के थे उनकी हर कोई इज्जत करता था
उस समय राजा को #राव की पदवी प्राप्त थी रुपजी चितलवाना (सत्यपुर) में प्रशासनिक ओहदे पर थे
रूपाजी तरक और चितलवाना(सांचौर) सत्यपुर के राव राजा वरजांगजी चौहान आपस में पगड़ी बदल कर भाई बन गये थे (कोल वचन) उस समय सत्यपुर नगर के राजकुमार सोनगरा(चहुआंण)चौहान राव श्री वरजांगजी के जैसलमेर में महारावल केहर सिंह भाटी के वहां संवत् 1441 में विवाह करवाने में रुपजी ने बहुत मदद की थी जो जग प्रसिद्ध है। इससे खुश होकर सांचौर के आठ पटेलों को वरजांगजी चौहान द्वारा देसाई की पदवी दी गई। यह पदवी राजकीय उच्च नियुक्तियां थी जो कलबीयो के लिए सम्मान था उस समय सांचौर एक स्वतंत्र रियासत थी।
मायड ऐडा पुत जण,
जैडा आंजणा रूपा तरक!
कन्या विवाह धर्म राखियां,
हिंदू धर्म ने कर सदा सतर्क.!!
फूटे गोला फिन्फारा , टूटे तुरीयं तंग !
संग चढियो चौहान रे ,उण रुपा ने रंग.!!
सोनाजी काग,बालोजी फक,सोमोजी सोलंकी, मोहन मालवी, रावलोंजी(रावण)कोंदली, धाडजी पौण,बोका जसाजी,बग आशाजी, आठ लोगों को पदवी दी गई थी।
जिसका वर्णन इस प्रकार है
सोन काग सरताज तरकों विक्रम वरदाई।
बाल फकों दातार सोमो सोलंकी सवाई।।

माळवीय हुवौ मोहण दान महंगी किजै।
कोंदलिये हुवौ रावण काम सदा उतम किजै।।

धर धाड पौण, बोका जसा बग आसायत, वखौणिये।
वेलो यूं कहे वरजागंजी ने पटेल इणविद पेहचौणिये।।

जिसका प्रमाण यह शिलालेख दे रहा हैं… इस स्तंभ पर रूपाजी तरक, राव वरजांगजी और कई लोगों के नाम अंकित है एवं इसकी जानकारी एक काव्य में मिल रही हैं जो आप सभी के समक्ष पेश कर रहा हूं
चढ़यो वरजांग परणवा सारू ,
घण थट जांन कियो घमसाण ।।
संवत चौदे सो वरस इकताळे ,
जादव घर जुड़या जैसाण ।।1।।
राण अमरांण उदयपुर राणो ,
भिड़या भूप तीनों कुळभांण ।।
चड़ हठ करण ज्यूँ छोळां दे ,
चित्त ऊजळ जितयो चहुआंण ।।2।।
आँजणा मदद करि हद ऊपर ,
साढ़ा तीन करोड़ खुरसाण ।।
मशरिक मोद हुओ मन मोटो ,
सोवन चिड़ी कियो चहुआंण ।।3।।
किलवे जाग जद रूपसी कीनो ,
आयो सोनगरो धणी अवसाणं ।।
मांगो आज मुख हुतां थे म्हांसूं ,
भाखे मशरिक राव कुळभांण ।।4।।
कुळ गुरू तणी मांगणी किन्ही ,
तांबा पत्र लिखियो कुळ तेण ।।
चहुआंण वंश ने आँजणा शामिल ,
दतक वर सुध नटे नह देंण ।।5।।
साख भड़ मोय आज सब शामिल ,
गौ ब्रह्म हत्या री ओ गाळ ।।
वेण लेखांण साख चंद्र सूरज ,
शुकवि बेहु कुळ झाली साळ ।।6।।
टंकन मीठा मीर डभाल।
इस गीत को पढ़ने या सुनने से हमें पता लगता है कि राव वरजांगजी साचौर , खिमरा सोढा अमरकोट और उदयपुर राणा साहब यानी तीन बारातें जैसलमेर आई थी जिसमें वरजांगजी के साथ रूपाजी तरक भूतेळा सहायक था(हर समय निष्ठावान, स्वामी के लिए किसी भी काम के लिए तत्पर)रुपाजी ने उस विवाह में युद्ध भी किया था।सोढा शासक और उदयपुर महाराणा लाखा कोआपस में उलझाकर रखा और बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए वरजांगजी के विवाह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।उस विवाह के बाद रुपाजी तरक का महत्व काफी बढ़ गया था

श्री_रूपारामजी तरक के निवेदन पर राव श्री वरजांगजी चितलवाना ने सात विशी यानी 140 कन्याओं का विवाह करवाया । उस समय( तुरी) जाति के लोगों ने सोने के एक टक्के को अदा(लेने) करने की हठ पकड़ रखी थी। जिसके कारण 140 हिंदू कन्याएं विवाह योग्य होने के बावजूद विवाह नहीं हो पा रहा था

उस समय जोधपुर मंडोर में राठौड़ वंश का शासन था। रुपजी तरक की कीर्ति देखकर जोधपुर राजा ने उन्हें मिलने के लिए आमंत्रण भेजा रुपजी जोधपुर में पहुंचे तब मंडोर मारवाड़ की राजधानी थी विरमजी के पुत्र चुंडाजी राठौड़ का मंडोर पर शासन था चुंंडाजी और मेवाड़ के महाराणा लाखा के बीच आपसी संघर्ष चल रहा था राव चुंडाजी को आर्थिक और सैन्य सहयोग की आवश्यकता थी राव चुंडा जी रूपजी की बुद्धिमत्ता से प्रभावित हुए, रुपजी ने किलवा में एक बड़ा सामूहिक विवाह प्रसंग आयोजित करवाने की चर्चा की और टक्का प्रथा जैसी कुरीतियों एवं अंधविश्वासों को ख़त्म करने के लिए सहयोग मांगा मंडोर(जोधपुर) राजा ने रूपारामजी को खुश होकर सहयोग देने का आश्वासन दिया और बदले में रुपारामजी ने राजा को आर्थिक एवं सैन्य सहयोग देने का वादा किया।
रूपाजी तरक के पिताश्री सोमजी की पुण्यतिथि के रूप में श्री रूपाराम तरक ने सभी हिंदू समाजों के साथ मिलकर किलवा में सामूहिक विवाह प्रसंग आयोजित करवाने का विचार किया क्योंकि उस समय हिंदू धर्म से संबंधित समाजों में घोर कुरीतियों और अंधविश्वास के कारण #समाजतत्कालीन समाज की मुख्यधारा से बहुत पिछड़ा हुआ था। और उसी समय आंजना समाज के साथ-साथ अन्य हिंदू समाजों (#अधिकतरसमाजों) में भी लड़की के विवाह के लिए ट‌‌‌क्का प्रथा प्रचलित थी।
अगर कोई हिंदू परिवार अपनी लड़की का विवाह करवाता तो (तुरा) लोग एक टक्का लेते, नहीं तो विवाह नहीं होने देते, इस कारण हिंदू धर्म के सभी समाजों में लड़कियों का विवाह सोने का टक्का नहीं देने पर रुक जाता था। तूरा को दान देने पर ही धार्मिक, मांगलिक कार्य विधिवत पूर्ण माना जाता था,ऐसी कुरितियां उन लोगों ने फैला रखी थी।
तूरा लोग कौन थे?
1.कई जगह इनको भाट जैसी जाति
2.ओड(बेलदार) जाति का उपनाम
3.मांगणियार लोग जो दान स्वीकार करते थे

  1. ब्रहामण या दिशांतरी
  2. हरिजन जैसी एक जाति या आदिवासी।
    6.भांड जाति की एक शाखा
    बहुत तथ्यों के अभाव में इनको ब्रहामण ही कहना सही होगा, यह कर्म काण्ड और धार्मिक कार्य से संबंधित थे और हिंदु धर्म के हर धार्मिक और मांगलिक कार्यक्रम ब्रहमाण ही करवाते थे बहुत सी प्रथाएं ब्रहमाणो के द्वारा बनाई गई है।
    श्री रूपाराम तरक ने इन कुरीतियों को मिटाने के लिए मारवाड़ एवं गुजरात के सभी हिंदू समाजों के प्रमुख लोगों के साथ विचार-विमर्शकारों के साथ बैठकर निर्णय लेने का फैसला किया। तभी के समय में संसाधनों के अभाव में बहुत समय बीत जाता था बैठकें हुई और छः महीने जगन (प्रसाद) चलाया था, तो सभी समाजों ने सर्वसम्मति से श्री रूपारामजी तरक को इन कुरीतियों को समाप्त करने के लिए नेतृत्वकर्ता बनाने की इच्छा जाहिर की थी तब श्री रूपारामजी तरक ने भी सभी समाजों का सम्मान रखते हुए नेतृत्व करने का निवेदन स्वीकार किया था। और पश्चिमी राजस्थान #मारवाड़एवंगुजरात के सभी हिंदू समाजों निमंत्रण भेजा कि सभी समाज के लोग आकर इस सामूहिक विवाह कार्यक्रम में अपनी बेटी का विवाह करवा सकता है। तब उस समय गुजरात एवं मारवाड़ क्षेत्र में जगह-जगह श्री रुपारामजी तरक की चर्चा होने लगी हर किसी व्यक्ति की जुबान पर यानी छत्तीस कौम ( अठारह वर्ण) की जुबां पर और( तुरा) समुदाय में भी श्री रुपाराम तरक को लेकर चर्चा होने लगी कि ऐसा व्यक्ति कौन है.? जो हमें बच्चे से लेकर बुड्ढे तक सभी को सोने की मोहर/टक्का देंगे?
    श्री रूपाराम तरक ने सन् (संवत् 1450) वार सोम पोष सूद सप्तमी में लगभग 1600 कन्याओं का सामूहिक विवाह प्रसंग आचार्यों से वैदिक मंत्रोच्चार और मांगलिक गीतों के साथ हर्षोल्लास के साथ सफलता पूर्वक आयोजित करवाया, जोधपुर राजा ने भी अपने प्रतिनिधि (दूत) उस विवाह समारोह में भेजें थे
    उस सामूहिक विवाह समारोह में रुपजी तरक ने करीब साठ अनाथ कन्याएं विभिन्न हिंदू समाज की थी उनके पिता की भूमिका निभाई और कन्यादान किया।
    श्री रूपाराम जी ने अपने पिताश्री सोमजी इच्छा पूरी की। सभी ब्राह्मणों (तुरी) को सोने का टक्का दिया गया, गरीबों में वस्त्र बांटे गए!राव चंडिसा,भाट और विवाह में पधारे सभी को यथायोग्य सम्मान पांचपसाव,उपहार,सीख सिरोपाव, दक्षिणा देकर विदा किया गया! चारों ओर खुशियां मनाईं गई और रूपजी तरक के चर्चे हर जगह होने लगें।
    रुपजी तरक के सामाजिक सुधार,..
    1.यह टक्का प्रथा शायद (तुर्को) अलाउद्दीन खिलजी ने हिंदूओं को आपस में तोड़ने के लिए हिंदुओं से ही शुरू करवाईं थी ताकि हिंदू आपस में उलझे रहे।
    2.रूपजी तरक के निवेदन करने पर मारवाड़ जोधपुर राजा ने तब से टक्का प्रथा बंद करवा दी
    3.पहले बैलगाड़ी या घोड़ागाड़ी पर सवार व्यक्ति राजा, ठाकुर के सामने से नहीं निकल सकता था उसको नीचे उतरना पड़ता था।रुपजी तरक के निवेदन करने पर बिंदराजा को शादी तक छूट दी गई, उसकी वेशभूषा एक राजसी की तरह पहनने की छूट दी गई।
    4.कलबीयो को हर गांव में गांव चौधरी के पद दिए गए
    5.कलबी समाज खेती में मेहनती और पारंगत होते थे जोधपुर रियासत का इलाका मरूस्थलीय है जहां बाजरा भी मुश्किल से होता था उदयपुर महाराणा के आग्रह पर सांचौर राजा वरजांगजी ने बारह कलबी पटेल जोधपुर में दिए गए जिन्होंने बारह गांव बाडा/वाडा जिस गांव के पीछे वाडा शब्द लगता है बसाये थे।जोधपुर राजा ने इन् (कलबीयो) को सोने मोहरें से भरा हुआ सरू (घडा) से संबोधित किया था क्योंकि कलबी लोग मेहनत से खेती करके बहुत अनाज उत्पन्न करते थे और कृषि ही मुख्य जरिया था रजवाड़ों के लिए ,जिसको वह कर के रूप में लेते थे किसानों से।
    6.इससे पहले आंजणा समाज गुजरात और सांचौर में तक ही ज्यादा सिमीत था मारवाड़ में आंजणा कलबीयों का आगमन स्थाई रूप से पहली बार हुआ।
    7.सामुहिक विवाह का चलन हुआ
    8.राजा या ठाकुर से संवाद का काम राव चंडिसा जो कि
    आंजणा समाज के कुलगुरू बन गए थे वो करते थे
    9.किसी ठाकुर के अत्याचार से तंग होकर कलबी अपने कुलगुरू के साथ गांव छोड़ देते थे और जिस राज्य रियासत में जातें थे इनको हरकोई रजवाड़ा अपने यहां रखने को आतुर होते थे
    10.हिंदू समाज सामुहिक विवाह का मारवाड़ में बडे पैमाने पर पहली बार आयोजन
    11.लूणी नदी के आसपास पानी की सुविधा होने से
    कलबी समाज बाहुल्ता में रहने लगे।
    श्री रूपाराम तरक का इतिहास पूरे आंजणा/#कलबी समाज का इतिहास है। और सच कहूं तो पूरे हिंदू समाज का इतिहास है क्योंकि उस समय 1600 कन्याओं में 14 वर्णों की कन्याएं शामिल थी। इसमें से एक वर्ण कलबी समाज था। और भी कई वर्णें जैसे- सुथार, जाट, राजपूत (चौहानों को छोड़कर), रसपूत, ब्राह्मण, माली, नाई आदि समाज भी शामिल थे।… क्योंकि पूरे हिंदू धर्म की संस्कृति को बदनाम करने के लिए तुरा समुदाय ने आतंक फैला रखा था।.और टक्का प्रथा जैसी कुरीतियां प्रचलित थी
    उस दिन के बाद से तुरियों का परित्याग किया गया।
    रावों चंडिसा (वंशावली संरक्षण) को कलबियों के बहिवाचन का काम सौंपा गया था।
    ऐसे ऐतिहासिक कार्यों की पहचान आंजणा/कलबी समाज के पुरखों की राव द्वारा नामों की पोथी (राव नामो वाचे ) पढ़ते समय सबसे पहले #रूपाजी_तरक नाम का वाचन करते हैं…. इससे मालूम पड़ता है कि राव चंडिसा समाज के लिए भी रूपाजी तरक का एक ऐतिहासिक महत्व रहा है क्योंकि सामूहिक विवाह प्रसंग के समय आंजणा/कलबी समाज के वंशजों की जानकारी रखने, नया नाम जोड़ने और वंशावली वाचनें का काम राव चंडिसा समाज को सौंप दिया।
    रूपाजी तरक के समय सबसे #पहले यह काम रावजी श्री गलारामजी चंडिसा राव को सौंपा गया था। इसीलिए श्री रुपारामजी तरक से लेकर आज तक आंजणा/ कलबी समाज की वंशावली रखने का काम राव समाज करता आ रहा है
    सोने रो टक्को देकर सारो यों सुख करयो,
    रूपाजी तरक समाज रों नाम रोशन करयो।
    हजारों कन्याओं रो भविष्य उज्जवल करयो,
    कुरिति मिटाएं ने पीढ़ी-पीढ़ी रो सुख करयो।

श्री राजारामजी महाराज ने शिलालेखों और इस तपोभूमि का भ्रमण किया था एवं समझने की कोशिश की थी, साथ ही श्री रूपारामजी तरक के इतिहास को लेकर प्रशंसा भी की थी और 7 दिन किलवा में रुके थे
जब तक स्तंभ पर लिखी हुई लिपि नहीं समझी जाती तब तक इसकी सच्चाई उजागर नहीं हो सकती।
रुपजी तरक के नाम से ट्रस्ट फाउंडेशन भी बना हुआ है जिसके अध्यक्ष सांसद देवजी पटेल है उनको इस बारे में पुरातत्व सांस्कृतिक विभाग से मदद की मांग करके इस स्तंभ को ऐतिहासिक बनाने के प्रयास करने होंगे!
समय और भ्रमण ऐतिहासिक साक्ष्यों के शोध के अभाव में त्रुर्टि संभव है,

क्यों किया जाता है अंतिम संस्कार?????

क्यों किया जाता है अंतिम संस्कार?????

आत्मा जब शरीर छोड़ती है तो मनुष्य को पहले ही पता चल जाता है । ऐसे में वो स्वयं भी हथियार डाल देता है अन्यथा उसने आत्मा को शरीर में बनाये रखने का भरसक प्रयत्न किया होता है और इस चक्कर में कष्ट को झेला होता है।

अब उसके सामने उसके सारे जीवन की यात्रा चल-चित्र की तरह चल रही होती है । उधर आत्मा शरीर से निकलने की तैयारी कर रही होती है इसलिये शरीर के पाँच प्राण एक ‘धनंजय प्राण’ को छोड़कर शरीर से बाहर निकलना आरम्भ कर देते हैं ।
ये प्राण, आत्मा से पहले बाहर निकलकर आत्मा के लिये सूक्ष्म-शरीर का निर्माण करते हैं । जोकि शरीर छोड़ने के बाद आत्मा का वाहन होता है। धनंजय प्राण पर सवार होकर आत्मा शरीर से निकलकर इसी सूक्ष्म-शरीर में प्रवेश कर जाती है।

बहरहाल अभी आत्मा शरीर में ही होती है और दूसरे प्राण धीरे-धीरे शरीर से बाहर निकल रहे होते है कि व्यक्ति को पता चल जाता है । उसे बे-चैनी होने लगती है, घबराहट होने लगती है। सारा शरीर फटने लगता है, खून की गति धीमी होने लगती है। सांस उखड़ने लगती है । बाहर के द्वार बंद होने लगते हैं।

अर्थात अब चेतना लुप्त होने लगती है और मूर्च्छा आने लगती है । चैतन्य ही आत्मा के होने का संकेत है और जब आत्मा ही शरीर छोड़ने को तैयार है – तो चेतना को तो जाना ही है और वो मूर्छित होंने लगता है । बुद्धी समाप्त हो जाती है और किसी अन्जाने लोक में प्रवेश की अनुभूति होने लगती है – ये चौथा आयाम होता है।

फिर मूर्च्छा आ जाती है और आत्मा एक झटके से किसी भी खुली हुई इंद्री से बाहर निकल जाती है । इसी समय चेहरा विकृत हो जाता है । यही आत्मा के शरीर छोड़ देने का मुख्य चिन्ह होता है । शरीर छोड़ने से पहले – केवल कुछ पलों के लिये आत्मा अपनी शक्ति से शरीर को शत-प्रतिशत सजीव करती है – ताकि उसके निकलने का मार्ग अवरुद्ध ना रहे – और फिर उसी समय आत्मा निकल जाती है और शरीर खाली मकान की तरह निर्जीव रह जाता है ।

इससे पहले घर के आसपास कुत्ते-बिल्ली के रोने की आवाजें आती हैं । इन पशुओं की आँखे अत्याधिक चमकीली होती है । जिससे ये रात के अँधेरे में तो क्या सूक्ष्म-शरीर धारी आत्माओं को भी देख लेते हैं । जब किसी व्यक्ति की आत्मा शरीर छोड़ने को तैयार होती है तो उसके अपने सगे-संबंधी जो मृतात्माओं के तौर पर होते है । उसे लेने आते है और व्यक्ति उन्हें यमदूत समझता है और कुत्ते-बिल्ली उन्हें साधारण जीवित मनुष्य ही समझते है और अन्जान होने की वजह से उन्हें देखकर रोते है और कभी-कभी भौंकते भी हैं ।

शरीर के पाँच प्रकार के प्राण बाहर निकलकर उसी तरह सूक्ष्म-शरीर का निर्माण करते हैं । जैसे गर्भ में स्थूल-शरीर का निर्माण क्रम से होता है ।
सूक्ष्म-शरीर का निर्माण होते ही आत्मा अपने मूल वाहक धनंजय प्राण के द्वारा बड़े वेग से निकलकर सूक्ष्म-शरीर में प्रवेश कर जाती है । आत्मा शरीर के जिस अंग से निकलती है उसे खोलती, तोड़ती हुई निकलती है । जो लोग भयंकर पापी होते है उनकी आत्मा मूत्र याँ मल-मार्ग से निकलती है । जो पापी भी है और पुण्यात्मा भी है उनकी आत्मा मुख से निकलती है । जो पापी कम और पुण्यात्मा अधिक है उनकी आत्मा नेत्रों से निकलती है और जो पूर्ण धर्मनिष्ठ हैं, पुण्यात्मा और योगी पुरुष है उनकी आत्मा ब्रह्मरंध्र से निकलती है।

अब शरीर से बाहर सूक्ष्म-शरीर का निर्माण हुआ रहता है । लेकिन ये सभी का नहीं हुआ रहता । जो लोग अपने जीवन में ही मोहमाया से मुक्त हो चुके योगी पुरुष है । उन्ही के लिये तुरंत सूक्ष्म-शरीर का निर्माण हो पाता है । अन्यथा जो लोग मोहमाया से ग्रस्त है परंतु बुद्धिमान है ज्ञान-विज्ञान से अथवा पांडित्य से युक्त है । ऐसे लोगों के लिये दस दिनों में सूक्ष्म शरीर का निर्माण हो पाता है ।

हिंदु धर्म-शास्त्र में – दस गात्र का श्राद्ध और अंतिम दिन मृतक का श्राद्ध करने का विधान इसीलिये है कि – दस दिनों में शरीर के दस अंगों का निर्माण इस विधान से पूर्ण हो जाये और आत्मा को सूक्ष्म-शरीर मिल जाये । ऐसे में, जब तक दस गात्र का श्राद्ध पूर्ण नहीं होता और सूक्ष्म-शरीर तैयार नहीं हो जाता आत्मा, प्रेत-शरीर में निवास करती है । अगर किसी कारण वश ऐसा नहीं हो पाता है तो आत्मा प्रेत-योनि में भटकती रहती है ।

एक और बात, आत्मा के शरीर छोड़ते समय व्यक्ति को पानी की बहुत प्यास लगती है । शरीर से प्राण निकलते समय कण्ठ सूखने लगता है । ह्रदय सूखता जाता है और इससे नाभि जलने लगती है। लेकिन कण्ठ अवरूद्ध होने से पानी पिया नहीं जाता और ऐसी ही स्तिथि में आत्मा शरीर छोड़ देती है । प्यास अधूरी रह जाती है । इसलिये अंतिम समय में मुख में ‘गंगा-जल’ डालने का विधान है ।

इसके बाद आत्मा का अगला पड़ाव होता है शमशान का ‘पीपल’ । यहाँ आत्मा के लिये ‘यमघंट’ बंधा होता है । जिसमे पानी होता है । यहाँ प्यासी आत्मा यमघंट से पानी पीती है जो उसके लिये अमृत तुल्य होता है । इस पानी से आत्मा तृप्ति का अनुभव करती है ।

ये सब हिन्दू धर्म शास्त्रों में विधान है । कि – मृतक के लिये ये सब करना होता है ताकि उसकी आत्मा को शान्ति मिले । अगर किसी कारण वश मृतक का दस गात्र का श्राद्ध ना हो सके और उसके लिये पीपल पर यमघंट भी ना बाँधा जा सके तो उसकी आत्मा प्रेत-योनि में चली जायेगी और फिर कब वहां से उसकी मुक्ति होगी । कहना कठिन होगा l

*हां,  कुछ उपाय अवश्य है पहला ये कि किसी के देहावसान होने के समय से लेकर तेरह दिन तक  निरन्तर भगवान के नामों का उच्च स्वर में जप अथवा कीर्तन किया जाय और जो संस्कार बताए गए हैं उनका पालन करने से मृतक भूत प्रेत की योनि, नरक आदि में जाने से बच जाएगा , लेकिन ये करेगा कोन ?*

*ये संस्कारित परिजन, सन्तान, नातेदार ही कर सकते हैं l अन्यथा आजकल अनेक लोग केवल औपचारिकता निभाकर केवल दिखावा ही अधिक करते हैं l

*दूसरा उपाय कि मरने वाला व्यक्ति स्वयं भजनानंदी हो, भगवान का भक्त हो और अंतिम समय तक यथासंभव हरी स्मरण में रत रहा हो ।

*तीसरा भगवान के धामों में देह त्यागी हो, अथवा दाह संस्कार काशी, वृंदावन या चारों धामों में से किसी में किया हो l*

*स्वयं विचार करना चाहिए कि हम दूसरों के भरोसे रहें या अपना हित स्वयं साधें l*

जीवन बहुत अनमोल है, इसको व्यर्थ मत गवाओ। एक एक पल को सार्थक करो हरिनाम का नित्य आश्रय लो । मन के दायरे से बाहर निकल कर सचेत होकर जीवन को जिओ, ना कि मन के अधीन होकर। ये मानुष जन्म बार बार नहीं मिलता।

जीवन का एक एक पल जो जीवन का गुजर रहा है ,वह फिर वापिस नही मिलेगा। इसमें जितना अधिक हो भगवान का स्मरण जप करते रहें,   हर पल जो भी कर्म करो बहुत सोच कर करो। क्यूंकि कर्म परछाईं की तरह मनुष्य के साथ रहते है। इसलिए सदा शुभ कर्मों की शीतल छाया में रहो। वैसे भी कर्मों की धवनि शब्दों की धवनि से अधिक ऊँची होती है,अतः सदा कर्म सोच विचार कर करो।

जिस प्रकार धनुष में से तीर के चल जाने के बाद वापिस नहीं आता,इसीप्रकार जो कर्म आपसे हो गया वो उस पल का कर्म वापिस नही होता चाहे अच्छा हो या बुरा।इसलिए इससे पहले कि आत्मा इस शरीर को छोड़ जाये, शरीर मेँ रहते हुए आत्मा को यानि स्वयं को जान लो और जितना अधिक हो सके मन से, वचन से, कर्म से भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण का ध्यान, चिंतन, जप कीर्तन करते रहो, निरन्तर स्मरण से हम यम फास से तो बचेंगे ही बचेंगे साथ ही हमें भगवत धाम भी प्राप्त हो सकेगा जोकि जीवन का वास्तविक लक्ष्य है।