सुनी गोद भरनेवाला व्रत – भीष्म पंचक २ से ६ नवम्बर

सुनी गोद भरनेवाला व्रत – भीष्म पंचक २ से ६ नवम्बर

सुनी गोद भरनेवाला व्रत – भीष्म पंचक २ से ६ नवम्बर


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स्त्री-रोग

श्वेत प्रदर (LEUCORRHOEA)-

श्वते प्रदर में पहले तीन दिन तक अरण्डी का 1-1 चम्मच तेल पीने के बाद औषध आरंभ करने पर लाभ होगा। श्वेतप्रदर के रोगी को सख्ती से ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।

पहला प्रयोगः आश्रम के आँवला-मिश्री के 2 से 5 ग्राम चूर्ण के सेवन से अथवा चावल के धोवन में जीरा और मिश्री के आधा-आधा तोला चूर्ण का सेवन करने से लाभ होता है।

दूसरा प्रयोगः पलाश (टेसू) के 10 से 15 फूल को 100 से 200 मि.ली. पानी में भिगोकर उसका पानी पीने से अथवा गुलाब के 5 ताजे फूलों को सुबह-शाम मिश्री के साथ खाकर ऊपर से गाय का दूध पीने से प्रदर में लाभ होता है।

तीसरा प्रयोगः बड़ की छाल का 50 मि.ली. काढ़ा बनाकर उसमें 2 ग्राम लोध्र चूर्ण डालकर पीने से लाभ होता है। इसी से योनि प्रक्षालन करना चाहिए।

चौथा प्रयोगः जामुन के पेड़ की जड़ों को चावल के मांड में घिसकर एक-एक चम्मच सुबह-शाम देने से स्त्रियों का पुराना प्रदर मिटता है।

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रक्तप्रदर (MENORRHAGIA)-

पहला प्रयोगः आम की गुठली का 1 से 2 ग्राम चूर्ण 5 से 10 ग्राम शहद के साथ लेने से या एक पके केले में आधा तोला घी मिलाकर रोज सुबह-शाम खाने से रक्तप्रदर में लाभ होता है।

दूसरा प्रयोगः 10 ग्राम खैर का गोंद रात में पानी में भिगोकर सुबह मिश्री डालकर खाने से अथवा जवाकुसुम (गुड़हल) की 5 से 10 कलियों को दूध में मसलकर पिलाने से रक्तप्रदर में लाभ होता है।

तीसरा प्रयोगः अशोक की 1-2 तोला छाल को अधकूटी करके 100 ग्राम दूध एवं 100 ग्राम पानी में मिलाकर उबालें। केवल दूध रहने पर छानकर पीने से रक्तप्रदर में लाभ होता है।

चौथा प्रयोगः गोखरू एवं शतावरी के समभाग चूर्ण में से 3 ग्राम चूर्ण को बकरी या गाय के सौ ग्राम दूध में उबालकर पीने से रक्तप्रदर में लाभ होता है।

पाँचवाँ प्रयोगः कच्चे केलों को धूप में सुखाकर उसका चूर्ण बना लें। इसमें से 5 ग्राम चूर्ण में 2 ग्राम गुड़ मिलाकर रक्तप्रदर की रोगिणी स्त्री को खिलाने से लाभ होगा। इस चूर्ण के साथ कच्चे गूलर का चूर्ण समान मात्रा में मिलाकर प्रतिदिन प्रातः-सायं 1-1 तोला सेवन करने से ज्यादा लाभ होता है।

सावधानीः उपचार के दौरान लाभ न होने तक आहार में दूध व चावल ही लें। बुखार हो तो उन दिनों उपवास करें।

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मासिक पीड़ा

कन्यालोहादिवटी की दो-दो गोलियां सुबह-शाम लें।

मासिक अधिक होने पर

काली मिट्टी की पट्टी पेट पर बाँधने से, पीपल के पाँच पत्ते रोज तीन बार खाने से एवं बबूल के 5 से 10 ग्राम गोंद का सेवन करने से लाभ होता है।

मासिक बंद होने पर

अरण्डी के पत्तों पर थोड़ा सा अरण्डी का ही थोडा सा गर्म तेल लगाकर पेट पर बाँधने से एवं तिल के 50 मि.ली. काढ़े में सोंठ, काली मिर्च, लेंडीपीपर, हींग और भारंग की जड़ का 3 ग्राम चूर्ण डालकर पीने से लाभ होता है।

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गर्भधारण

पहला प्रयोगः शिवलिंगी के 9-9 बीज दूध या पानी में घोंटकर प्रातःकाल खाली पेट मासिक के पाँचवें दिन से चार दिन तक लेने से लाभ होता है।

दूसरा प्रयोगः अश्वगंधा के काढ़े में घृत पकाकर यह घृत एक तोला मात्रा में ऋतुकाल में स्त्री यदि सेवन करे तो उसे गर्भ रहता है। (एक किलो अश्वगंधा के बोरकूट चूर्ण को 16 लीटर पानी में उबालें। चौथाई भाग अर्थात् 4 लीटर पानी रह जाने पर उसमें 1 किलो घी डालकर उबालें। जब केवल घी बचे तब उसे उतारकर डिब्बे में भर लें। यही घृत पकाना है।)

तीसरा प्रयोगः दूध के साथ पुत्रजीवा की जड़, बीज अथवा पत्तों के एक तोला चूर्ण को लेने से, ब्रह्मचर्य का पालन करने से, तीन महीने तक यह प्रयोग करने से बाँझ को भी संतान प्राप्ति हो सकती है। जिनके बालक जन्मते ही मर जाते हों उनके लिए भी यह एक अकसीर प्रयोग है। पुत्रजीवा के बीजों की माला पहनने से भी लाभ होता है।

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गर्भस्थापक

रात को किसी मिट्टी के बर्तन में 25 ग्राम अजवायन, 25 ग्राम मिश्री 25 ग्राम पानी में डुबाकर रखें। सुबह उसे ठण्डाई की नाईं पीसकर पियें।

भोजन में बिना नमक की मूँग की दाल व रोटी खायें। यह प्रयोग मासिक धर्म के पहले दिन से लेकर आठवें दिन तक करना चाहिए।

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गर्भरक्षा

प्रथम प्रयोगः जिस स्त्री को बार-बार गर्भपात को जाता हो उसकी कमर में धतूरे की जड़ का चार उँगल का टुकड़ा बाँध दें। इससे गर्भपात नहीं होगा। जब नौ मास पूर्ण हो जाय तब जड़ को खोल दें।

दूसरा प्रयोगः जौ के आटे को एवं मिश्री को समान मात्रा में मिलाकर खाने से बार-बार होने वाला गर्भपात रुकता है।

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सुन्दर बालक के लिए

नारियल का पानी पीने से अथवा नौ महीने तक रोज बबूल के 5 से 10 ग्राम पत्ते खाने से गर्भवती स्त्री गौरवर्णीय बालक को जन्म देती है। फिर चाहे माता-पिता श्याम ही क्यों न हों।

गर्भिणी की उल्टी

बेल का 5 ग्राम गूदा एवं धनिया का 50 मि.ली. पानी मिलाकर पीने से अथवा कपूरकाचली के 2 ग्राम चूर्ण को 10 मि.ली. गुलाबजल में मिश्रित करके लेने से गर्भिणी की उल्टी शांत होती है।

गर्भिणी के पेट की जलन

10-15 मुनक्के का सेवन करने से अथवा बकरी के 100 से 200 मि.ली. दूध में 10 से 20 ग्राम सोंठ पीसकर लेने से लाभ होता है।

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प्रसव पीड़ा

पहला प्रयोगः प्रसूति के समय ताजे गोबर (1-2 घण्टे के भीतर का) को कपड़े में निचोड़कर एक चम्मच रस पिला देने से प्रसूति शीघ्र हो जाती है।

दूसरा प्रयोगः तुलसी का 20 से 50 मि.ली. रस पिलाने से प्रसूति सरलता से हो जाती है।

तीसरा प्रयोगः पाँच तोला आँवले को 20 तोला पानी में खूब उबालिये। जब पानी 8 तोला रह जाये तब उसमें 10 ग्राम शहद मिलाकर देने से बिना किसी प्रसव पीड़ा के शिशु का जन्म होता है।

चौथा प्रयोगः नीम अथवा बिजौरे की जड़ कमर में बाँधने से प्रसव सरलता से हो जाता है। प्रसूति के बाद जड़ छोड़ दें।

मंत्रः ॐ कौंरा देव्यै नमः। ॐ नमो आदेश गुरु का…. कौंरा वीरा का बैठी हात… सब दिराह मज्ञाक साथ…. फिर बसे नाति विरति…. मेरी भक्ति… गुरु की शक्ति…. कौंरा देवी की आज्ञा।

प्रसव के समय कष्ट उठा रही स्त्री को इस मंत्र से अभिमंत्रित किया हुआ जल पिलाने से वह स्त्री बिना पीड़ा के बच्चे को जन्म देती है।

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सूतिका रोग

प्रसव के उपरान्त तुरंत स्त्री के शरीर में यदि खूब पीड़ा होती हो, बुखार आता हो, प्यास लगती हो कंपकपी होती हो, शरीर में जड़ता, सूजन, शूल आदि होता हो एवं दस्त लग जाते हों तो इन सब लक्षणों से समझना चाहिए की स्त्री सुआ रोग या सूतिका रोग से ग्रस्त है।

प्रसूति के समय पंखा आदि नहीं होना चाहिए तथा प्रसूता स्त्री को सवा माह तक पंखे की तथा बाहर की हवा नहीं लगने देना चाहिए।

रोज थोड़ा सा अजवायन खिलाने से प्रसूता की भूख खुलती है, आहार पचता है, अपानवायु छूटता है, कमरदर्द दूर होता है और गर्भाशय की शुद्धि होती है।

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सौभाग्यसूंठी पाकः

इस पाक के लाभादि का वर्णन भगवान महादेव ने माता पार्वती के समक्ष किया था। नारदजी ने इसे ब्रह्माजी के श्रीमुख से सुना था और अश्विनीकुमारों ने इस पाक का निर्माण किया था।

सामग्रीः सोंठ 250 ग्राम, गाय का घी 600 ग्राम,  गाय का दूध 1 लीटर,  शक्कर 2 किलो, किशमिश या चिरौंजी 50-50 ग्राम, हरे नारियल का खोपरा (गिरी) 400 ग्राम, छुआरा 20 ग्राम ।

औषधि द्रव्य: स्याहजीरा (काला जीरा), धनिया, लेंडीपीपर, नागरमोथ, विदारीकंद, शंखावली, ब्राह्मी, शतावरी, वचा, गोखरू, बला के बीज, तमालपत्र, पीपरामूल, अश्वगंधा व सफ़ेद मूसली 20-20 ग्राम, नागकेसर, चंदन, लौहभस्म व शिलाजीत 10-10 ग्राम्।

सुगंधित द्रव्य: सौंफ़ व इलायची 20-20 ग्राम, जायफ़ल, जावित्री व दालचीनी 10-10 ग्राम, केसर 5 ग्राम, केसर 5 ग्राम्।

विधिः लोहे की कडाही में घी को गर्म कर उसमें सौंठ को भून लें। सौंठ के सुनहरे लाल हो जाने पर उसमें दूध व शक्कर मिला दें तथा गाढा होने तक हिलाते रहें। बाद में किशमिश, चिरौंजी, खोपरा, छुआरा तथा उपरोक्त औषधि द्रव्यों का चूर्ण मिलाकर धीमी आंच पर मिश्रण को पकाते हुए सतत हिलाते रहें। जब मिश्रण में से घी छुटने लगे, एवं मिश्रण का पिंड (गोला) बनने लगे, तब जायफ़ल, इलायची आदि सुगंधित द्रव्यों का चूर्ण मिलायें और मिश्रण को नीचे उतार लें। सुगंधित द्रव्यों को अंत में मिलाने से उनकी सुगंध बनी रहती है।

सेवन विधिः सुबह 10 ग्राम पाक दूध या सेवफ़ल अथवा किशमिश के पानी के साथ लें। उसके चार से छ: घंटे बाद भोजन करें। भोजन में तीखे, खट्टे, तले हुए तथा पचने में भारी पदार्थ न लें। शाम को पुन: 10 ग्राम पाक दूध के साथ लें। लाभ: इस पाक के सेवन से बल, कांति, बुद्धि, स्मृति, उत्तम वाणी, सौंदर्य, सुकुमारता तथा सौभाग्य की प्राप्ति होती है। प्रसूति माताओं को यह पाक देने से योनि, शैथिल्य दूर होता है, दूध खुलकर आता है। इसके सेवन से 80 प्रकार के वातरोग, 40 प्रकार के पित्तरोग, 20 प्रकार के कफ़रोग, 8 प्रकार के ज्वर, 18 प्रकार के मूत्ररोग तथा नासारोग, नेत्ररोग, कर्णरोग, मुखरोग, मस्तिष्क के रोग, बस्तिशूल व योनिशूल नष्ट हो जाते हैं। सर्दिंयों में इस दैवी पाक का विधिवत् सेवन कर नीरोगता और दीर्घायुष्य की प्राप्ति कर सकते हैं।

पहला प्रयोगः निर्गुण्डी के पत्तों का 20 से 50 मि.ली. काढ़ा अरण्डी के 2 से 10 मि.ली. तेल के साथ देने से अथवा दशमूल, क्वाथ, या देवदारव्याधि क्वाथ उबालकर पिलाने से सूतिका रोग में लाभ होता है।

दूसरा प्रयोगः प्रसूति के बाद अजवाइन या कपास की जड़ का 50 मि.ली. काढ़ा पिलाने से अथवा सात दिन तक तिल के 1 तोला तेल में अरनी के पत्तों का 20 मि.ली. रस देने से सूतिका रोग से बचाव होता है।

इस रोग में हल्दी एवं सोंठ उत्तम औषधि है।

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स्तन रोगः

स्तनों के पकने, गाँठ होने, चीरा, सूजन अथवा लाल होने पर अरण्डी का तेल लगाकर थोड़े गर्म करके अरण्डी के पत्ते बाँधने से लाभ होता है।

दुग्धवर्धकः

पहला प्रयोगः खजूर, खोपरा, दूध, मक्खन, घी, शतावरी, अमृता आदि खाने से अथवा मक्खन मिश्री के साथ चने खाने से अथवा गाय के दूध में चावल पकाकर खाने से अथवा रोज 1-1 तोला सौंफ दो बार खाने से दूध बढ़ता है।

दूसरा प्रयोगः अरण्डी के पत्तों को पानी में उबालकर उस पानी को ऊपर से स्तनों पर डालें एवं उसमें ही उबले हुए पत्तों को छाती पर बाँधने से सूखा हुआ दूध भी उतरने लगता है।

दूध बंद करने के लिएः कुटज छाल का 2-2 ग्राम चूर्ण दिन में तीन बार खाने से दूध आना बंद हो जाता है।

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तन-मन से निरोग-स्वस्थ व तेजस्वी संतान-प्राप्ति के नियम

गृहस्थ जीवन की सफलता उत्तम संतान की प्राप्ति में मानी जाती है किन्तु मनुष्य यह नहीं जानता कि कुछ नियमों का पालन उसे दिव्य, तेजस्वी एवं ओजस्वी संतान प्रदान करने में सहायक होता है। अगर निम्नांकित नियमों को जानकर उसका पालन किया जाये तो उत्तम, स्वस्थ संतान की प्राप्ति हो सकती है।

ऋतुकाल की चौथी, छठी, आठवीं और बारहवीं रात्रि में स्त्रीसंग करके पुरुष दीर्घायुवाला पुत्र उत्पन्न करता है। पुत्र की इच्छा रखनेवाली स्त्री को इस रात्रि में लक्ष्मणा (हनुमान बेल) की जड़ को दूध में घिसकर उसकी दो तीन बूँदे दायें नथुने में डालनी चाहिए।

ऋतुकाल की पाँचवी, नवमी और ग्यारहवीं रात्रि में स्त्रीसंग करके गुणवान कन्या उत्पन्न करता है किन्तु सातवीं रात्रि में स्त्रीसंग करने से दुर्भांगी कन्या उत्पन्न होती है।

ऋतुकाल की तीन रात्रियों में, प्रदोष काल में, अमावस्या, पूर्णिमा, ग्यारस अथवा ग्रहण के दिनों में एवं श्राद्ध तथा पर्व दिनों में संयम न रखने वाले गृहस्थों के यहाँ कम आयुवाले, रोगी, दुःख देने वाले एवं विकृत अंगवाले बच्चों का जन्म होता है। अतः इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए।

तेजस्वी पुत्र की इच्छा रखनेवाले स्त्री-पुरुष दोनों को उपरोक्त बातों का ध्यान रखकर शैया पर निम्नलिखित वेदमंत्र पढ़ना चाहिए।

अहिरसि, आयुरसि, सर्वतः प्रतिष्ठासि धाता।

त्वा दधातु विधाता त्वा दधातु ब्रह्मवर्चसा भवेदिति।।

ब्रह्मा बृहस्पतिर्विष्णुः सोमः सूर्यस्तथाऽश्विनौ।

भगोऽथ मित्रावरु्णौ वीरं दधतु मे सुतम्।।

गर्भवती स्त्री द्वारा रखने योग्य सावधानी

उकड़ू बैठना, ऊँचे नीचे स्थान एवं कठिन आसन में बैठना, वायु, मल-मूत्र का वेग रोकना, शरीर जिसके लिए अभ्यस्त न हो ऐसा कठिन व्यायाम करना, तीखे, गरम, खट्टे, दही एवं मावे की मिठाइयों जैसे पदार्थों का अति सेवन करना, गहरी खाई अथवा ऊँचे जलप्रपात हों ऐसे स्थलों पर जाना, शरीर अत्यंत हिले-डुले ऐसे वाहनों में मुसाफिरी करना, हमेशा चित्त सोना-ये सब कार्य और व्यवहार गर्भ को नष्ट करने वाले हैं अतः गर्भिणी को इनसे बचना चाहिए।

जिनका गर्भ गिर जाता हो वे माताएँ गर्भरक्षक मंत्र (जो कि मंत्र की इच्छुक माताओं को ध्यान योग शिविर में दिया जाता है।) पढ़ते हुए एक काले धागे पर 21 गाँठे लगायें व 21 बार गर्भरक्षक मंत्र पढ़कर पेट पर बाँधें। इससे गर्भ की रक्षा होती है।

जो गर्भिणी स्त्री खुले प्रदेश में, एकांत में अथवा हाथ-पैर को खूब फैलाकर सोने के स्वभाव वाली हो अथवा रात्रि के समय में बाहर घूमने के स्वभाववाली हो तो वह स्त्री उन्मत्त-पागल संतान को जन्म देती है।

लड़ाई-झगड़े, हाथापाई एवं कलह करने के स्वभाववाली स्त्री अपस्मार या मिर्गी के रोगवाली संतान को जन्म देती है।

यदि गर्भावस्था में मैथुन का सेवन किया जाये तो खराब देहवाली, लज्जारहित, स्त्रीलंपट संतान उत्पन्न होती है। गर्भावस्था में शोक, क्रोध एवं दुष्ट कर्मों का त्याग करना चाहिए।

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गर्भवती स्त्री के लिए पथ्य आहार-विहारः

गर्भधारण होने के पश्चात् ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करना चाहिए। सत्साहित्य का श्रवण एवं अध्ययन, सत्पुरुषों, आश्रमों एवं देवमंदिरों के दर्शन करना चाहिए एवं मन प्रफुल्लित रहे – ऐसी सत्प्रवृत्तियों में रत रहना चाहिए।

गर्भधारण के पश्चात् प्रथम मास बिना औषधि का ठंडा दूध सुबह-शाम पियें। आहार प्रकृति के अनुकूल एवं हितकर करें। दूध भात उत्तम आहार है। दूसरे मास में मधुर औषधि जैसे कि जीवंति, मुलहठी, मेदा,महामेदा, सालम, मुसलीकंद आदि से संस्कारित सिद्ध दूध योग्य मात्रा में पियें तथा आहार हितकर एवं सुपाच्य ले तथा आहार हितकर एवं सुपाच्य लें।

तीसरे मास में दूध में शहद एवं घी (विमिश्रण) डालकर पिलायें तथा हितकर एवं सुपाच्य आहार दें।

चौथे मास में दूध में एक तोला मलाई डालकर पिलायें तथा हितकर एवं सुपाच्य आहार दें।

पाँचवें मास में दूध एवं घी मिलाकर पिलायें।

छठे एवं सातवें मास में दूसरे महीने की तरह औषधियों से सिद्ध किया गया दूध दें एवं घी खिलायें।

आठवें एवं नवें मास में चावल को दूध में पकाकर, घी डालकर सुबह-शाम दो वक्त खिलायें।

इसके अलावा वातनाशक द्रव्यों से सिद्ध तेल के द्वारा कटि से जंघाओं तक मालिश करनी चाहिए। पुराने मल की शुद्धि के लिए निरुद बस्ति एवं अनुवासन बस्ति का प्रयोग करना चाहिए। नवें महीने में उसी तेल का रूई का फाहा योनि में रखना चाहिए।

शरीर में रक्त बनाने के लिए प्राणियों के खून से बनी ऐलोपैथिक केप्सूल अथवा सिरप लेने के स्थान पर सुवर्णमालती, रजतमालती एवं च्यवनप्राश का रोज सेवन करना चाहिए एवं दशमूल का काढ़ा बनाकर पीना चाहिए।

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शिशु-रोग

दस्त लगने पर

पहला प्रयोगः जायफल या सोंठ अथवा दोनों का मिश्रण पानी में घिसकर सुबह-शाम 3 सेस 6 रत्ती (करीब 400 से 750 मिलीग्राम) देने से हरे दस्त मिट जाते हैं।

दूसरा प्रयोगः 1 ग्राम खसखस पीसकर 10 ग्राम दही में मिलाकर देने से बच्चों की दस्त की तकलीफ दूर होती है।

उदरविकार

5 ग्राम सौंफ़ लेकर थोड़ा कूट लें। एक गिलास उबलते हुए पानी में डालें व उतार लें और ढँककर ठण्डा होने के लिए रख दें। ठण्डा होने पर मसलकर छान लें। यह सोंफ का 1 चम्मच पानी 1-2 चम्मच दूध में मिलाकर दिन में 3 बार शिशु को पिलाने से शिशु को पेट फूलना, दस्त, अपच, मरोड़, पेटदर्द होना आदि उदरविकार नहीं होते हैं।

दाँत निकलते समय यह सोंफ का पानी शिशु को अवश्य पिलाना चाहिए जिससे शिशु स्वस्थ रहता है।

अपच

नागरबेल के पान के रस में शहद मिलाकर चाटने से छोटे बच्चों का आफरा, अपच तुरंत ही दूर होता है।

सर्दी-खाँसी

पहला प्रयोगः हल्दी का नस्य देने से तथा एक ग्राम शीतोपलादि चूर्ण पिलाने से अथवा अदरक व तुलसी का 2-2 मि.ली. रस 5 ग्राम शहद के साथ देने से लाभ होता है।

दूसरा प्रयोगः 1 ग्राम सोंठ को दूध अथवा पानी में घिसकर पिलाने से कफ निकल जाता है।

तीसरा प्रयोगः नागरबेल के पान में अरंडी का तेल लगाकर हल्का सा गर्म कर छोटे बच्चे की छाती पर रखकर गर्म कपड़े से हल्का सेंक करने से बालक की छाती में भरा कफ निकल जाता है।

 वराध (बच्चों का एक रोग हब्बा-डब्बा)

पहला प्रयोगः जन्म से 40 दिन तक सुबह-शाम दो आनी भार (1.5 ग्राम) शहद चटाने से बालकों को यह रोग नहीं होता।

दूसरा प्रयोगः मोरपंख की भस्म 1 ग्राम, काली मिर्च का चूर्ण 1 ग्राम। इनको घोंटकर छः मात्रा बनायें। जरूरत के अनुसार दिन में 1-1 मात्रा तीन-चार बार दें।

तीसरा प्रयोगः बालरोगों में 2 ग्राम हल्दी व 1 ग्राम सेंधा नमक शहद अथवा दूध के साथ चटाने से बालक को उलटी होकर वराध में राहत मिलती है। यह प्रयोग एक वर्ष से अधिक की आयुवाले बालक पर ही करें।

न्यूमोनिया

महालक्ष्मीविलासरस की आधी से एक गोली 10 से 50 मि.ली. दूध अथवा 2 से 10 ग्राम शहद अथवा अदरक के 2 से 10 मि.ली. रस के साथ देने से न्यूमोनिया में लाभ होता है।

फुन्सियाँ होने पर

पहला प्रयोगः पीपल की छाल और ईंट पानी में एक साथ घिसकर लेप करने से फुन्सियाँ मिटती हैं।

दूसरा प्रयोगः हल्दी, चंदन, मुलहठी व लोध्र का पाऊडर मिलाकर या किसी एक का भी पाऊडर पानी में मिलाकर लगाने से फुन्सी मिटती है।

दाँत निकलने पर

पहला प्रयोगः तुलसी के पत्तों का रस शहद में मिलाकर मसूढ़े पर घिसने से बालक के दाँत बिना तकलीफ के उग जाते हैं।

दूसरा प्रयोगः मुलहठी का चूर्ण मसूढ़ों पर घिसने से दाँत जल्दी निकलते हैं।

नेत्र रोगः त्रिफला या मुलहठी का 5 ग्राम चूर्ण तीन घंटे से अधिक समय तक 100 मि.ली. पानी में भिगोकर फिर थोड़ा-सा उबालें व ठण्डा होने पर मोटे कपड़े से छानकर आँखों में डालें। इससे समस्त नेत्र रोगों में आशातीत लाभ होता है। यह प्रतिदिन ताजा बनाकर ही प्रयोग में लें तथा सुबह का जल रात को उपयोग में न लें।

हिचकीः धीरे-धीरे प्याज सूँघने से लाभ होता है।

पेट के कृमि

पहला प्रयोगः पेट में कृमि होने पर शिशु के गले में छिले हुए लहसुन की कलियों का अथवा तुलसी का हार बनाकर पहनाने से आँतों के कीड़ों से शिशु की रक्षा होती है।

दूसरा प्रयोगः सुबह खाली पेट एक ग्राम गुड़ खिलाकर उसके पाँच मिनट बाद बच्चे को दो काली मिर्च के चूर्ण में वायविडंग का दो ग्राम चूर्ण मिलाकर खिलाने से पेट के कृमि में लाभ होता है। यह प्रयोग लगातार 15 दिन तक करें तथा एक सप्ताह बंद करके आवश्यकता पड़ने पर पुनः आरंभ करें।

तीसरा प्रयोगः पपीते के 11 बीज सुबह खाली पेट सात दिन तक बच्चे को खिलायें। इससे पेट के कृमि मिटते हैं। यह प्रयोग वर्ष में एक ही बार करें।

चौथा प्रयोगः पेट में कृमि होने पर उन्हें नियमित सुबह-शाम दो-दो चम्मच अनार का रस पिलाने से कृमि नष्ट हो जाते हैं।

पाँचवाँ प्रयोगः गर्म पानी के साथ करेले के पत्तों का रस देने से कृमि का नाश होता है।

छठा प्रयोगः नीम के पत्तों का 10 ग्राम रस 10 ग्राम शहद में मिलाकर पिलाने से उदरकृमि नष्ट हो जाते हैं।

सातवाँ प्रयोगः तीन से पाँच साल के बच्चों को आधा ग्राम अजवायन के चूर्ण को समभाग गुड़ में मिलाकर गोली बनाकर दिन में तीन बार खिलाने से लाभ होता है।

नाभि पकने परः चंदन, हल्दी, मुलहठी या दारुहल्दी का चूर्ण भुरभराएँ।

मुख की गर्मीः मुलहठी का चूर्ण या फुलाया हुआ सुहागा मुँह में भुरभुराएँ या उसके गर्म पानी से कुल्ले करवायें। साथ में 1 से 2 ग्राम त्रिफला चूर्ण देने से लाभ होता है।

मुँह से लार निकलनाः

कफ की अधिकता एवं पेट में कीड़े होने की वजह से मुँह से लार निकलती है। इसलिए दूध, दही, मीठी चीजें, केले, चीकू, आइसक्रीम, चॉकलेट आदि न खिलायें। अदरक एवं तुलसी का रस पिलायें। कुबेराक्ष चूर्ण या’संतकृपा चूर्ण’ खिलायें।

तुतलापनः

पहला प्रयोगः सूखे आँवले के 1 से 2 ग्राम चूर्ण को गाय के घी के साथ मिलाकर चाटने से थोड़े ही दिनों में तुतलापन दूर हो जाता है।

दूसरा प्रयोगः दो रत्ती शंखभस्म दिन में दो बार शहद के साथ चटायें तथा छोटा शंख गले में बाँधें एवं रात्रि को एक बड़े शंख में पानी भरकर सुबह वही पानी पिलायें।

तीसरा प्रयोगः बारीक भुनी हुई फिटकरी मुख में रखकर सो जाया करें। एक मास के निरन्तर सेवन से तुतलापन दूर हो जायेगा।

साथ में यह प्रयोग करवायें- अन्तःकुंभक करवाकर, होंठ बंद करके, सिर हिलाते हुए ‘ॐ…’ का गुंजन कंठ में ही करवाने से तुतलेपन में लाभ होता है।

शैयामूत्र (ENURESIS)

सोने से पूर्व ठण्डे पानी से हाथ पैर धुलायें।

प्रयोगः सोंठ, काली मिर्च, पीपर, इलायची, एवं सेंधा नमक प्रत्येक का 1-1 ग्राम का मिश्रण 5 से 10 ग्राम शहद के साथ देने से अथवा काले तिल एवं खसखस समान मात्रा में मिलाकर 1-1 चम्मच चबाकर खिलाने एवं पानी पिलाने से लाभ होता है। पेट के कृमि की चिकित्सा भी करें।

दमाः बच्चे के पैर के तलवे के नीचे थोड़ी लहसुन की कलियों को छीलकर थोड़ी देर रखें एवं ऊपर से ऊन के गर्म मोजे तथा चप्पल पहना दें। ऐसा करने से दमा धीरे-धीरे मिट जाता है। साथ में 10 से 20 मि.ली. अदरक एवं 5 से 10 मि.ली. तुलसी का रस दें।

सिरदर्दः अरनी के फूल सुँघाने से अथवा अरण्डी के तेल को थोड़ा सा गर्म करके नाक में 1-1 बूँद डालने से बच्चों के सिरदर्द में लाभ होता है।

बालकों की पुष्टि

पहला प्रयोगः तुलसी के पत्तों का 10 बूँद रस पानी में मिलाकर रोज पिलाने से स्नायु एवं हड्डियाँ मजबूत होती हैं।

दूसरा प्रयोगः शुद्ध घी में बना हुआ हलुआ खिलाने से शरीर पुष्ट होता है।

मिट्टी खाने परः बालक की मिट्टी खाने की आदत को छुड़ाने के लिए खूब पके हुए केलों को शहद के साथ खिलायें।

स्मरणशक्ति बढ़ाने हेतु

पहला प्रयोगः तुलसी के पत्तों का 5 से 20 मि.ली. रस पीने से स्मरणशक्ति बढ़ती है।

दूसरा प्रयोगः पढ़ने के बाद भी याद न रहता हो सुबह एवं रात्रि को दो तीन महीने तक 1 से 2 ग्राम ब्राह्मी तथा शंखपुष्पी लेने से लाभ होता है।

तीसरा प्रयोगः 5 से 10 ग्राम शहद के साथ 1 से 2 ग्राम भांगरा चूर्ण अथवा 1 से 2 ग्राम शंखावली के साथ उतना ही आँवला चूर्ण खाने से स्मरणशक्ति बढ़ती है।

चौथा प्रयोगः बादाम की गिरी, चारोली एवं खसखस को बारीक पीसकर, दूध में उबालकर, खीर बनाकर उसमें गाय का घी एवं मिश्री डालकर पीने से दिमाग पुष्ट होता है।

पाँचवाँ प्रयोगः दस ग्राम सौंफ को अधकूटी करके 100 ग्राम पानी में खूब उबालें। 25 ग्राम पानी शेष रहने पर उसमें 100 ग्राम दूध, 1 चम्मच शक्कर एवं एक चम्मच घी मिलाकर सुबह-शाम पियें। घी न हो तो एक बादाम पीसकर डालें। इससे दिमागी शक्ति बढ़ती है।

शिशु को नींद न आने पर

पहला प्रयोगः बालक को रोना बंद न होता हो तो जायफल पानी में घिसकर उसके ललाट पर लगाने से बालक शांति से सो जायेगा।

दूसरा प्रयोगः प्याज के रस की 5 बूँद को शहद में मिलाकर चाटने से बालक प्रगाढ़ नींद लेता है।

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सिजेरियन डिलीवरी खतरनाक

सिजेरियन डिलीवरी खतरनाक

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अब वैज्ञानिक भी मान रहे हैं सिजेरियन डिलीवरी खतरनाक
 
      विश्वमानव के सच्चे हितेषी पूज्य संत श्री आशारामजी बापू वर्षों से सत्संग में कहते आ रहे हैं कि ऑपरेशन द्वारा प्रसूति माँ और बच्चा दोनों के लिए हानिकारक है | अत: प्रसूति प्राकृतिक रूप से ही होनी चाहिए | प्रयोगों के पश्यात विज्ञान भी आज इस तथ्य को मानने के लिए बाध्य हो गया है कि प्राकृतिक प्रसूति ही माँ एवं बच्चे के लिए लाभप्रद है | जापानी वैज्ञानिकों द्वारा किये गये शोध से यह सिद्ध हुआ है कि प्रसूति के समय स्त्रावित होनेवाले ९५% योनिगत द्रव्य हितकर जीवाणुओं से युक्त होते है, जो सामान्य प्रसूति में शिशु के शरीर में प्रविष्ट होकर उसकी रोगप्रतिकारक शक्ति और पाचनशक्ति को बढ़ाते है | इससे दमा, एलर्जी, श्वसन-संबंधी रोगों का खीरा काफी कम हो जाता है, जबकि ऑपरेशन से पैदा हुए बच्चे अस्पताल के हानिकारक जीवाणुओं से प्रभावित हो जाते है |
         स्विट्जरलैंड के डॉ. केरोलिन रोदुइत ने २९१७ बच्चों का अध्ययन करके पाया कि उनमें से २४७ बच्चे जो सिजेरियन से जन्मे थे, उनमें से १२% बच्चों को ८ साल की उम्र तक में दमे का रोग हुआ और उपचार कराना पड़ा | इसका कारण यह था कि उनकी रोगप्रतिकारक शक्ति प्राकृतिक रूप से जन्म लेनेवाले बच्चों की अपेक्षा कम होती है, जिससे उनमें दमे का रोग होने की सम्भावना ८०% बढ़ जाती है | प्राक्रतिक प्रसूति में गर्भाशय के संकोचन से शिशु के फेफड़ों और छाती में संचित प्रवाही द्रव्य मुँह के द्वारा बाहर निकल जाता है, जो सिजेरियन में नहीं हो सकता | इससे शिशु के फेफड़ों को भारी हानि होती है, जो आगे चलकर दमे जैसे रोगों का कारण बनती है | ऑपरेशन से पैदा हुये बच्चों में मधुमेह (diabetes) होने की सम्भावना २०% अधिक रहती है | सिजेरियन के बाद अगले गर्भधारण में गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क एवं मेरुरज्जु (spinal cord) में विकृति तथा वजन कम होने का भय रहता है |

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अब वैज्ञानिक भी मान रहे हैं सिजेरियन डिलीवरी खतरनाक
 
      विश्वमानव के सच्चे हितेषी पूज्य संत श्री आशारामजी बापू वर्षों से सत्संग में कहते आ रहे हैं कि ऑपरेशन द्वारा प्रसूति माँ और बच्चा दोनों के लिए हानिकारक है | अत: प्रसूति प्राकृतिक रूप से ही होनी चाहिए | प्रयोगों के पश्यात विज्ञान भी आज इस तथ्य को मानने के लिए बाध्य हो गया है कि प्राकृतिक प्रसूति ही माँ एवं बच्चे के लिए लाभप्रद है | जापानी वैज्ञानिकों द्वारा किये गये शोध से यह सिद्ध हुआ है कि प्रसूति के समय स्त्रावित होनेवाले ९५% योनिगत द्रव्य हितकर जीवाणुओं से युक्त होते है, जो सामान्य प्रसूति में शिशु के शरीर में प्रविष्ट होकर उसकी रोगप्रतिकारक शक्ति और पाचनशक्ति को बढ़ाते है | इससे दमा, एलर्जी, श्वसन-संबंधी रोगों का खीरा काफी कम हो जाता है, जबकि ऑपरेशन से पैदा हुए बच्चे अस्पताल के हानिकारक जीवाणुओं से प्रभावित हो जाते है |
         स्विट्जरलैंड के डॉ. केरोलिन रोदुइत ने २९१७ बच्चों का अध्ययन करके पाया कि उनमें से २४७ बच्चे जो सिजेरियन से जन्मे थे, उनमें से १२% बच्चों को ८ साल की उम्र तक में दमे का रोग हुआ और उपचार कराना पड़ा | इसका कारण यह था कि उनकी रोगप्रतिकारक शक्ति प्राकृतिक रूप से जन्म लेनेवाले बच्चों की अपेक्षा कम होती है, जिससे उनमें दमे का रोग होने की सम्भावना ८०% बढ़ जाती है | प्राक्रतिक प्रसूति में गर्भाशय के संकोचन से शिशु के फेफड़ों और छाती में संचित प्रवाही द्रव्य मुँह के द्वारा बाहर निकल जाता है, जो सिजेरियन में नहीं हो सकता | इससे शिशु के फेफड़ों को भारी हानि होती है, जो आगे चलकर दमे जैसे रोगों का कारण बनती है | ऑपरेशन से पैदा हुये बच्चों में मधुमेह (diabetes) होने की सम्भावना २०% अधिक रहती है | सिजेरियन के बाद अगले गर्भधारण में गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क एवं मेरुरज्जु (spinal cord) में विकृति तथा वजन कम होने का भय रहता है |

गर्भाधान के लिए उत्तम समय कौन-सा ?

गर्भाधान के लिए उत्तम समय कौन-सा ?

गर्भाधान के लिए उत्तम समय कौन-सा

ऋतुकाल की उत्तरोत्तर रात्रियों में गर्भाधान श्रेष्ठ है लेकिन 11वीं व 13 वीं रात्रि वर्जित है।

यदि पुत्र की इच्छा करनी हो तो पत्नी को ऋतुकाल की 4,6,8,10 व 12वीं रात्रि में से किसी एक रात्रि का शुभ मुहूर्त पसंद कर समागम करना चाहिए।

यदि पुत्री की इच्छा हो तो ऋतुकाल की 5,7 या 9वीं रात्रि में से किसी एक रात्रि का शुभ मुहूर्त पसंद करना चाहिए।

कृष्णपक्ष के दिनों में गर्भ रहे तो पुत्र व शुक्लपक्ष में गर्भ रहे तो पुत्री पैदा होने की सम्भावना होती है।

रात्रि के शुभ समय में से भी प्रथम 15 व अंतिम 15 मिनट का त्याग करके बीच का समय गर्भाधान के लिए निश्चित करें।

गर्भाधान हेतु सप्ताह के 7 दिनों की रात्रियों के शुभ समय इस प्रकार हैं-क

रविवार – 8 से 9 और 9.30 से 3.00

सोमवार – 10.30 से 12.00 और 1.30 से 3.00

मंगलवार – 7.30 से 9 और 10,30 से 1.30

बुधवार – 7.30 से 10.00 और 3.00 से 4.00

गुरुवार 12.00 से 1.30

शुक्रवार – 9.00 से 10.30 और 12.00 से 3.00

शनिवार – 9.00 से 12.00

पावन उदगारलेडी मार्टिन के सुहाग की रक्षा करने अफगानिस्तान में प्रकटे शिवजी

(

साधू संग संसार में, दुर्लभ मनुष्य शरीर |

सत्संग सवित तत्व है, त्रिविध ताप की पीर ||

 

मानव-देह मिलना दुर्लभ है और मिल भी जाय तो आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक ये तीन ताप मनुष्य को तपाते रहते है | किंतु मनुष्य-देह में भी पवित्रता हो, सच्चाई हो, शुद्धता हो और साधु-संग मिल जाय तो ये त्रिविध ताप मिट जाते हैं |

 

सन १८७९ की बात है | भारत में ब्रिटिश शासन था, उन्हीं दिनों अंग्रेजों ने अफगानिस्तान पर आक्रमण कर दिया | इस युद्ध का संचालन आगर मालवा ब्रिटिश छावनी के लेफ़्टिनेंट कर्नल मार्टिन को सौंपा गया था | कर्नल मार्टिन समय-समय पर युद्ध-क्षेत्र से अपनी पत्नी को कुशलता के समाचार भेजता रहता था | युद्ध लंबा चला और अब तो संदेश आने भी बंद हो गये | लेडी मार्टिन को चिंता सताने लगी कि ‘कहीं कुछ अनर्थ न हो गया हो, अफगानी सैनिकों ने मेरे पति को मार न डाला हो | कदाचित पति युद्ध में शहीद हो गये तो मैं जीकर क्या करूँगी ?’-यह सोचकर वह अनेक शंका-कुशंकाओं से घिरी रहती थी | चिन्तातुर बनी वह एक दिन घोड़े पर बैठकर घूमने जा रही थी | मार्ग में किसी मंदिर से आती हुई शंख व मंत्र ध्वनि ने उसे आकर्षित किया | वह एक पेड़ से अपना घोड़ा बाँधकर मंदिर में गयी | बैजनाथ महादेव के इस मंदिर में शिवपूजन में निमग्न पंडितों से उसने पूछा :”आप लोग क्या कर रहे हैं ?” एक व्रद्ध ब्राह्मण ने कहा : ” हम भगवान शिव का पूजन कर रहे हैं |” लेडी मार्टिन : ‘शिवपूजन की क्या महत्ता है ?’ ब्राह्मण :’बेटी ! भगवान शिव तो औढरदानी हैं, भोलेनाथ हैं | अपने भक्तों के संकट-निवारण करने में वे तनिक भी देर नहीं करते हैं | भक्त उनके दरबार में जो भी मनोकामना लेकर के आता है, उसे वे शीघ्र पूरी करते हैं, किंतु बेटी ! तुम बहुत चिन्तित और उदास नजर आ रही हो ! क्या बात है ?” लेडी मार्टिन :” मेरे पतिदेव युद्ध में गये हैं और विगत कई दिनों से उनका कोई समाचार नहीं आया है | वे युद्ध में फँस गये हैं या मारे गये है, कुछ पता नहीं चल रहा | मैं उनकी ओर से बहुत चिन्तित हूँ |” इतना कहते हुए लेडी मार्टिन की आँखे नम हो गयीं | ब्राह्मण : “तुम चिन्ता मत करो, बेटी ! शिवजी का पूजन करो, उनसे प्रार्थना करो, लघुरूद्री करवाओ | भगवान शिव तुम्हारे पति का रक्षण अवश्य करेंगे | ”

 

पंडितों की सलाह पर उसने वहाँ ग्यारह दिन का ‘ॐ नमः शिवाय’ मंत्र से लघुरूद्री अनुष्ठान प्रारंभ किया तथा प्रतिदिन भगवान शिव से अपने पति की रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगी कि “हे भगवान शिव ! हे बैजनाथ महादेव ! यदि मेरे पति युद्ध से सकुशल लौट आये तो मैं आपका शिखरबंद मंदिर बनवाऊँगी |” लघुरूद्री की पूर्णाहुति के दिन भागता हुआ एक संदेशवाहक शिवमंदिर में आया और लेडी मार्टिन को एक लिफाफा दिया | उसने घबराते-घबराते वह लिफाफा खोला और पढ़ने लगी |

 

पत्र में उसके पति ने लिखा था :”हम युद्ध में रत थे और तुम तक संदेश भी भेजते रहे लेकिन आक पठानी सेना ने घेर लिया | ब्रिटिश सेना कट मरती और मैं भी मर जाता | ऐसी विकट परिस्थिति में हम घिर गये थे कि प्राण बचाकर भागना भी अत्याधिक कठिन था | इतने में मैंने देखा कि युद्धभूमि में भारत के कोई एक योगी, जिनकी बड़ी लम्बी जटाएँ हैं, हाथ में तीन नोंकवाला एक हथियार (त्रिशूल) इतनी तीव्र गति से घुम रहा था कि पठान सैनिक उन्हें देखकर भागने लगे | उनकी कृपा से घेरे से हमें निकलकर पठानों पर वार करने का मौका मिल गया और हमारी हार की घड़ियाँ अचानक जीत में बदल गयीं | यह सब भारत के उन बाघाम्बरधारी एवं तीन नोंकवाला हथियार धारण किये हुए (त्रिशूलधारी) योगी के कारण ही सम्भव हुआ | उनके महातेजस्वी व्यक्तित्व के प्रभाव से देखते-ही-देखते अफगानिस्तान की पठानी सेना भाग खड़ी हुई और वे परम योगी मुझे हिम्मत देते हुए कहने लगे | घबराओं नहीं | मैं भगवान शिव हूँ तथा तुम्हारी पत्नी की पूजा से प्रसन्न होकर तुम्हारी रक्षा करने आया हूँ, उसके सुहाग की रक्षा करने आया हूँ |”

 

पत्र पढ़ते हुए लेडी मार्टिन की आँखों से अविरत अश्रुधारा बहती जा रही थी, उसका हृदय अहोभाव से भर गया और वह भगवान शिव की प्रतिमा के सम्मुख सिर रखकर प्रार्थना करते-करते रो पड़ी | कुछ सप्ताह बाद उसका पति कर्नल मार्टिन आगर छावनी लौटा | पत्नी ने उसे सारी बातें सुनाते हुए कहा : “आपके संदेश के अभाव में मैं चिन्तित हो उठी थी लेकिन ब्राह्मणों की सलाह से शिवपूजा में लग गयी और आपकी रक्षा के लिए भगवान शिव से प्रार्थना करने लगी | उन दुःखभंजक महादेव ने मेरी प्रार्थना सुनी और आपको सकुशल लौटा दिया |” अब तो पति-पत्नी दोनों ही नियमित रूप से बैजनाथ महादेव के मंदिर में पूजा-अर्चना करने लगे | अपनी पत्नी की इच्छा पर कर्नल मार्टिन मे सन १८८३ में पंद्रह हजार रूपये देकर बैजनाथ महादेव मंदिर का जीर्णोंद्वार करवाया, जिसका शिलालेख आज भी आगर मालवा के इस मंदिर में लगा है | पूरे भारतभर में अंग्रेजों द्वार निर्मित यह एकमात्र हिन्दू मंदिर है |

 

यूरोप जाने से पूर्व लेडी मार्टिन ने पड़ितों से कहा : “हम अपने घर में भी भगवान शिव का मंदिर बनायेंगे तथा इन दुःख-निवारक देव की आजीवन पूजा करते रहेंगे |”

 

भगवान शिव में… भगवान कृष्ण में… माँ अम्बा में… आत्मवेत्ता सदगुरू में.. सत्ता तो एक ही है | आवश्यकता है अटल विश्वास की | एकलव्य ने गुरूमूर्ति में विश्वास कर वह प्राप्त कर लिया जो अर्जुन को कठिन लगा | आरूणि, उपमन्यु, ध्रुव, प्रहलाद आदि अन्य सैकड़ों उदारहण हमारे सामने प्रत्यक्ष हैं | आज भी इस प्रकार का सहयोग हजारों भक्तों को, साधकों को भगवान व आत्मवेत्ता सदगुरूओं के द्वारा निरन्तर प्राप्त होता रहता है | आवश्यकता है तो बस, केवल विश्वास की |

Tuesday, 6 October 2015निष्काम कर्म की आवश्यकतासमाज को आपके प्रेम की, सान्त्वना की, स्नेह की और निष्काम कर्म की आवश्यकता है। आपके पास करने की शक्ति है तो उसे समाज की आवश्यकतापूर्ति में लगा दो। आपकी आवश्यकता माँ, बाप, गुरू और भगवान पूरी कर देंगे। अन्न, जल और वस्त्र आसानी से मिल जायेंगे। पर टेरीकोटन कपड़ा चाहिए, पफ-पॉवडर चाहिए तो यह रूचि है। रूचि के अनुसार जो चीजें मिलती हैं, वे हमारी हानि करती हैं। आवश्यकतानुसार चीजें हमारी तन्दुरूस्ती की भी रक्षा करती है। जो आदमी ज्यादा बीमार है, उसकी बुद्धि सुमति नहीं है।पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य – ‘अनन्य योग’